Monday 8 January 2018

नारीवादी नेतृत्व, आंदोलन निर्माण और अधिकार प्रशिक्षण : एक प्रेरणादयक अनुभव

कुछ नए सीखने की क्षमता एक तोहफ़ा है, कुछ नया सीखने का सामर्थ्य एक कला है, पर सीखने की चाहत एक च्वाइस है” – ब्रायन हर्बर्ट

क्षमता और सामर्थ्य से ज्यादा मुझे लगता है कि मुझमें सीखने की चाहत है, क्योंकि नई चीजों, बातों के अभाव में जीवन नीरस हो जाता है और नीरस जीवन भी कोई जीवन है! जेंडर और यौनिकता पर काम करते हुए मुझे ज्यादा समय नहीं हुआ है, लेकिन इस थोड़े से समय में मैंने काफी कुछ सीखा है, जिससे ये समझ में आया कि अभी बहुत कुछ है सीखने और जानने के लिए। ऐसे में जब क्रिया ने नारीवादी नेतृत्व, आंदोलन निर्माण और अधिकार प्रशिक्षण की घोषणा की, तो मैंने आनन-फानन में प्रशिक्षण के लिए अप्लाई कर दिया। इसमें दो बातें मुख्य है- पहली ये कि क्रिया द्वारा आयोजित प्रशिक्षण में देश के अलग-अलग कोने में जमीनी स्तर पर काम करने वाली महिलाएं हिस्सा लेती है (यानि हर कोई अलग अलग अनुभव के साथ आता है जिससे एक दूसरे के काम को समझने और अपने काम को नया मोड़ देने में मदद मिलती है)

दूसरी ये कि यहां प्रशिक्षण के नाम पर लेक्चर या एकतरफा ज्ञान नहीं दिया जाता, बल्कि अलग-अलग मुद्दों पर चर्चा, एक्टिविटी और अनुभवों के साथ समझ बनाई जाती है। और ये मेरा सबसे पसंदीदा हिस्सा भी है।


नारीवादी नेतृत्व, आंदोलन निर्माण और अधिकार प्रशिक्षण के पहले दिन की शुरुआत प्रतिभागियों को 3 समूह में बांटकर की, जहां एक को जेंडर, दूसरे को पितृसत्ता और तीसरे समूह को सत्ता पर अपनी समझ को लेकर चर्चा करने के लिए निर्देशित किया गया। मुझे लगा था कि सत्ता या पॉवर के बारे में करना बेहद आसान है, सारी चीजें एकदम पारदर्शी है, लेकिन जैसे जैसे हमारी चर्चा आगे बढ़ी, एक के बाद एक पर्दे गिरने लगे और कई बातें जिन्हें बहुत आसानी से हम नजरंदाज कर देते है सामने आ गई। यहीं नहीं जिस तरह से हमने इस मुद्दे पर अपनी समझ बनाई उतने ही उमदा तरीके से इसे चार्ट पेपर पर प्रदर्शित भी किया। चर्चा से जुड़ी कुछ बातें यू रहीं-

सत्ता नकारात्मक के साथ-साथ सकरात्मक भी हो सकती है।
सत्ता एक शख्स या फिर समूह की भी हो सकती है जैसे एक व्यक्ति बदलाव चाहता है तो वो अपनी सोच से उस बदलाव को लाने की कोशिश करता है जिसके मद्देनजर लोग प्रभावित होते है और उसके साथ जुड़ते चले जाते हैं वहीं एक अकेला शख्स बहुत कुछ नहीं कर पाएगा अगर समूह की शक्ति उसके साथ न हो।
सत्ता प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष हो सकती है- उदाहरण के तौर पर एक बॉस और एक कर्मचारी का संबंध, बॉस के पास सत्ता है इसलिए कर्मचारी को वही करना होगा जो उसका बॉस उसे बताया। वहीं अप्रत्यक्ष सत्ता के हिसाब से अगर आपकी संस्था भारत में है और उसे कोई विदेशी फंडिग मिलती है, तो काम तो आप अपने हिसाब से कर रहे होते है पर कहीं न कहीं विदेशी मुल्क के नियमों की फांस आपकी संस्था पर होती ही है।
सत्ता नरम और कठोर हो सकती है- जैसे मां प्यार से अपने बच्चे को पढ़ने के लिए कहे, तो ये सत्ता नरम कहलाई जाएगी वहीं डांट फटकार, मारपीट करके सत्ता दिखाना कठोर वर्ग में आएगा।
जो सत्ता में होता है उसके पास फैसला लेने का अधिकार होता है, वो दूसरों को कंट्रोल कर सकता है, चीजों को अपने मुताबिक ढाल सकता है।
सत्ता अलग अलग तरीके से प्रभावित करती है, जिनके पास लगता है सत्ता नहीं है वो भी अपनी सत्ता दिखा पाते हैं, और जिनके पास सत्ता होती है वो कई बार एक भूमिका में भी बंध जाते हैं उदाहरण के तौर पर – पुरुष पर आमदनी की जिम्मेदारी और महिलाओं को घर संभालने का काम
सत्ता केवल पुरुषों के पास नहीं होती, बल्कि महिलाओं के पास भी हो सकती है। कई बार विक्टिम या जिस शख्स के साथ कुछ गलत हुआ है वो भी इस बात को ढाल बनाकर अपनी सत्ता जता सकता है।
सत्ता उसके पास होती है जिसके पास संसाधन होता है, और ये अलग-अलग स्तर पर काम करती है, मसलन इसमें समय, परिस्थिति, क्लास, जाति की अहम भूमिका होती है
सत्ता अस्थिर होती है, हर समय ये एक समान या एक शख्स के पास नहीं रहती।
कभी-कभी हमारे पास सत्ता होती है, लेकिन हम उसका लाभ नहीं उठा पाते क्योंकि हमारे पास इसकी जानकारी नहीं होती। उदाहरण के तौर पर किसी को बड़ा पद मिल गया है पर वो अपनी सत्ता नहीं दिखा पाता क्योंकि या तो उसकी योग्यता नहीं है या फिर उसके पास पर्याप्त जानकारी नहीं है।
सत्ता के कई ढांचे है- परिवार, समुदाय, समाज, राज्य, देश, अंतर्राष्टीय, पृथ्वी।

सत्ता के अलग-अलग रंग और रुप की बात करते हुए कई निजी अनुभव दिमाग में धमा-चौकड़ी मचा रहे थे कि कैसे मीडिया हाउस में मेरे एक सहभागी ने इस बात पर एतराज जताया था कि क्योंकि वो पुरुष है इसलिए उनकी नाइट शिफ्ट होती है और महिलाएं बड़े आराम से इस शिफ्ट से बच जाती है, या फिर जब मैं एक जेंडर पर काम करने वाली संस्था का हिस्सा थी, वहां के बॉस जिन्हें लोग काफी पंसद करते थे अपने जेंडर, जाति, क्लास और नरम अंदाज से सत्ता का निर्वाह करते थे, या फिर पारिवारिक स्थिति में कैसे रिश्तेदार या फिर माता-पिता अपनी सत्ता को स्थापित करते दिखते हैं।

इसके साथ ही जेंडर और पित्तृसत्ता पर आधारित चर्चा भी काफी रोचक रही। इस दौरान जेंडर के नियमों के बारे में बातचीत की गई, जैसे पुरुषों के लिए पैसा कमाना और महिलाओं के लिए घर संभालना एक अहम जेंडर नियम है। ये नियम हमें ये भी बताते है कि जेंडर के आधार पर कुछ काम करने है और कुछ कामों की एकदम मनाही है। जेंडर के नियमों को बड़े ही आसानी से परिवार की इज्जत से जोड़ दिया जाता है- जैसे महिलाओं को रात में बाहर नहीं जाना है, उनका पहनावा, हंसाना, श्रृंगार आदि।

इसके बाद प्रतिभागियों को क्या आपने कोई जेंडर का नियम तोड़ा है पर शेयर करने के लिए आमंत्रित किया गया। ये काफी मज़ेदार रहा क्योंकि यहां प्रतिभागियों ने कई निजी और प्रेरणादयक कहानियां बांटी जैसे एक प्रतिभागी जो मुस्लिम है उन्होंने बताया कि कैसे शुरुआती दौर में घर से बाहर निकलना, नौकरी करना और देर शाम तक बाहर रुकना प्रतिबंधित था पर धीरे-धीरे उन्होंने नियमों को तोड़ते हुए अपनी पहचान बनाई और आज वो अलग-अलग जगहों पर जाती है। 

इसके बाद प्रतिभागियों को अलग-अलग समूहों में बांटा गया और – परिवार, मीडिया, धर्म, शिक्षा, कार्यक्षेत्र, सार्वजनिक जगहों पर किस-किस रुप में जेंडर नज़र आता है उस पर चर्चा करने के लिए आमंत्रित किया गया। इस चर्चा के कुछ बिंदू ये है-
परिवार- खाना जैसे दूध, अंडे, कपड़ों को लेकर, पढ़ाई, घर के काम का बंटवार, महावारी के दौरान घर की महिलाओं के लिए जेंडर के नियम, शादी, खाना और कपड़ों को लेकर पंसद, नापसंद, परिवार की संपत्ति पर लड़कियों का अधिकार नहीं होता, पैसे खर्च को लेकर फर्क, निर्णय लेना का अधिकार, आने-जाने पर पांबदी, उठने-बैठने से लेकर छोटे से छोटे तौर तरीके में फर्क, खिलौनों का फर्क, परिवार के टूटने और झगड़े का आरोप महिलाओं पर आता है, गर्भवती न होने पर, लड़के को जन्म देने का दवाब महिलाओं पर होता है इत्यादि।

शिक्षा- लड़कों के मुकाबले लड़कियों को नहीं पढ़ाया जाता, कम फीस की जगहों पर लड़की का दाखिला, यूनिफॉर्म और खेल में फर्क, लड़कों और लड़कियों के मुकाबलों में फर्क- लड़कियों के लिए घरेलू काम जैसे महंदी और रंगोली मुकाबले, स्कूल की किताबों में भी जेंडर के फर्क दिखाया जाता है, उच्च शिक्षा के लिए लड़कों को आगे किया जाता है, विषयों के चुनाव में फर्क, स्कूल में काम का बंटवारा भी जेंडर के आधार पर होता है, सांस्कृतिक कार्यक्रम महिलाएं करती है, इतिहास में भी पुरुषों को ताकत और आजादी की लड़ाई लड़ते दिखाया जाता है, यौनिक पहचानों और ट्रांसजेंडर, विकलांगता के बारे में मुख्यधारा में कोई बात नहीं होती।

धर्म- धर्म पैदा होने के साथ मिलता है, नाम से ही धर्म का अंदाजा लग जाता है, कर्म, क्रिया कांड पुरुष ही करते हैं, धर्म के उच्च पद पर पंडित, पादरी- पुरुष ही होते है, शादी के सभी निशानियां जैसे मंगलसूत्र, सिंदूर आदि महिलाएं धारण करती है और पुरुष की मृत्यु के बाद उन्हें ये सब त्याग देना पड़ता है, रीति-रिवाज़, वर्त, त्यौहरों की ज़िम्मेदारी महिलाओं के उपर होती है, महावारी के दौरान धर्म संबंधित नियमों का पालन करना होता है, धार्मिक ग्रंथों में भी मसलन चाणक्य नीति, रामायण में जेंडर आधारित फर्क देखने को मिलता है, धर्म के साथ कई अंधविश्वास जुड़े हुए है, धर्मगुरु और उनके अनुग्राही, कई प्रथाएं जैसे देवदासी आदि, डायन प्रथा आदि, आध्यमिकता में भी महिला और पुरुष में काफी फर्क होता है।

आध्यतम का रास्ता भी महिलाओं के लिए इतना मुश्किल है, रात में सत्संग हो तो महिला नहीं जा सकती, घर से दूर हो तो भी जाने की पाबंदी, वहां पुरुष हो तो भी मुसीबत। आजकल कबीर के गीतों को इतना पसंद किया जाता है कि वो एक ब्रेंड रुप में सामने आ रहा है पर वहीं मीराबाई और कई भक्तों के बारे में लोग जानते भी नहीं है। नेहा सेठ, भक्ति संगीतज्ञ

सार्वजनिक जगह- महिलाएं सिर्फ काम के लिए ही बाहर आना जा पाती है, अगर पार्क में अकेली महिलाएं जाएं तो उन्हें शक की नज़रों से देखा जाता है, चौकीदारी/रखवाली का काम पुरुष करते है, बस या फिर पब्लिक ट्रांसपोर्ट में महिलाएं रात को सफर नहीं करती, अगर करती भी है तो उनके साथ छेड़खानी होती है, पान की दुकान, चाय की दुकान और शराब की दुकान पर पुरुष का एकाधिकार है, शमशान में भी पुरुष जाते हैं, मंदिर, मजिद में पुरुष ही सेवा करते हैं, टॉयलेट के बाहर पैसे लेना, बीयर बॉर, चौपाल पर बैठना महिलाओं के पहुंच से बाहर है, पशु मेला, किसान मेले में पुरुष जाते हैं, खुले में पेशाब करना, तालाब और नदी में नहाने पर पुरुषों को कोई नहीं देखता, जिम और स्वमिंग पूल में दोपहर का समय महिलाओं का होता है, सिनेमा हॉल में देर रात के शो, या फिर सी ग्रेड की फिल्में देखना महिलाओं के लिए वर्जित है।

कार्यक्षेत्र –बिजली विभाग में पुरुष होते हैं, घरों में महिलाएं ही नौकरानी का काम करती है, महिलाएं चाट, गोलगप्पे, पानी की दुकान नहीं लगा सकती, रिसेप्शन, एयरहोस्टेज महिलाएं होती है क्योंकि वो आकर्षण का केंद्र होती है, वकील पुरुष होते हैं, हल जोतेगा तो पुरुष करेगा, महिलाओं के प्रसव, स्वास्थ्य संबंधित कामों के लिए महिला डॉक्टर होती है, कई बार इंटरव्यू में शादी, गर्भवस्था पर आधारित सवाल भी महिलाओं से पूछे जाते हैं, वेतन में गैरबराबरी, सरकारी नौकरी में पुरुष होते हैं, महिलाओं को गंभीरता से नहीं लिया जाता, हर वक्त उनके व्यवहार पर पूर्वानुमान लगाए जाते हैं, गैर शादीशुदा महिलाओं को अलग नज़र से देखा जाता है।

मीडिया – मीडिया में पुरुष को ताकतवर, रक्षक और हीरो की तरह से दिखाया जाता है,महिलाओं के मुद्दों और अधिकारों पर जोर नहीं दिया जाता, न्यूज़ प्रेजेंटर या एन्टरटेंमेंट के रुप में पंसद किया जाता है, कौन ही न्यूज़ कौन कवर करेगा वो भी जेंडर आधारित होता है जैसे क्राइम की खबरे पुरुष करेंगे, फिल्मों की खबरें लड़की करेगी।

ये पूरी एक्टिविटी काफी रोचक थी क्योंकि इन सभी बिंदूओं को जब बोर्ड पर उतारा गया तो पित्तृसत्ता का ढांचा उभर कर आया, ऐसा पहली बार हुआ था मेरे साथ जहां बिना इस शब्द का प्रयोग किए किसी ट्रेनर ने इतनी बखूबी से पितृसत्ता की समझ बनाई हो।

पितृसत्ता एक सोच है, एक विचारधारा है जो समाज के ढांचे को बनाए रखने का काम कर रही है, इसे एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक सफलतापूर्वक पहुंच रही है। इस गैरबराबरी की व्यवस्था को बनाए रखने का आधार जेंडर, वर्ग और जातिवाद है। अगर गौर से सोचा जाए तो ये व्यवस्था आदिमानव के समय से शुरु हुई जब उन्होंने एक जगह ठहरने, घर बनाने और खेती करने के बारे में सोचा, और उसी समय संसाधन और संपत्ति के अधिकार को लेकर इस ढांचे का निर्माण किया। पहला दिन काफी भारी रहा, एक के बाद एक प्रतिभागियों का अनुभव बांटना और खुद के अनुभवों में झांकना और समझ पाना आसान नहीं था।

दूसरे दिन की शुरुआत हमारे काम के विश्लेषण के रुप में हुई जहां प्रतिभागियों को बांटना था कि जो काम कर रहे हैं वो क्यों कर रहे हैं? इस दौरान कई प्रतिभागियों ने अपने संस्था का काम बताया, तो कुछ ने अपने निजी जीवन में हुए किस्सों से प्रेरित होकर काम शुरु करने की बात सांझा की। ये एक अहम मुद्दा है, क्योंकि हमारे काम और उसके पीछे की सोच बहुत अहम, इसके साथ ही काम से जुड़ाव क्यों है इस पर हमें समय समय पर सोचना चाहिए ताकि काम की अहमियत और प्रभाव बने रहे। मुझे ऐसा भी लगता है कि जिस काम के साथ हमारा व्यक्तिगत जुड़ाव होता है वो काम बेहतरीन तरीके से कर पाते हैं और वो काफी प्रभावी भी होता है। हालांकि इस बात पर काफी वाद-विवाद भी हुआ जो कार्यशाला के बाहर हमारे रुम तक जा पहुंचा।

इसके बाद प्रतिभागियों को एक ऐसा किस्सा बांटना था जहां उन्हें सत्ताधारी महसूस हुआ हो। इस चर्चा को आगे बढ़ाते हुए दृश्य और अदृश्य सत्ता के बारे में बात की।  सत्ता को व्यक्तिगत, सामूहिक, रणनीतिक, राजनैतिक, धार्मिक के ढांचों के लेंस से भी देखा गया। सत्ता को और गहराई से समझने के लिए प्रतिभागियों को तीन समूहों में बांटा गया जहां हमें सार्वजनिक, निजी और व्यक्तिगत जीवन में सत्ता के स्रोत पर अपनी समझ पर बातचीत करने के लिए निर्देशित किया गया। गौर करने की बात ये है कि तीनों स्तरों पर अलग-अलग तरीके से सत्ता दी जाती है और छीनी भी जाती है।


सत्र के अगले हिस्से में सभी प्रतिभागियों को तीन समूहों में बांटकर एक शरीर बनाते हुए लीडर की विशेषताएं दर्शानी को कहा गया। बाकी समूहों की तरह मेरे समूह में भी लोगों ने बढ़-चढ़कर खूबियां लिखी जैसे उसे हर समस्या का समाधान आना चाहिए, विवेकशील होना, समानता रखने वाला, ज्ञान हो, समझदार हो, स्पष्टवादी, भरोसेमंद, अपनी मूल्यों पर अडिग हो, दूसरों को नेतृत्व में शामिल करने वाला और न जाने क्या-क्या ? ये सब लिखते समय, और दूसरे समूहों का सुनते सुनते मैं एकदम परेशान हो गई, सिर घूमने लगा, समझ नहीं आ रहा था कि हमें किसी एक शख्स से इतनी उम्मीदें कैसे हो सकती है? और ये भी कि दूसरे से ये उम्मीदे तब की जानी चाहिए जब इनमें से हम कुछ हो। मैंने तो सोच लिया कि अगर ये सब लीडर के गुण होते हैं तो शायद मैं कभी नेतृत्व नहीं करपाउंगी। मैंने एक लम्बी गहरी सांस ली और इस विचार को अपने दिमाग से उडन-छू कर दिया।


दोपहर के सत्र का पहला हिस्सा सवालों, उनपर चर्चा और उससे जुड़ी कहानियों का रहा जैसे आपने पहली बार असमानता कब देखी थी?”

ऐसा मौका जहां आपने असमानता देखी हो, पर कुछ एक्शन न लिया हो?”
आज के दिन में संस्थागत तौर पर आपको क्या बातें या चीजें परेशान करती हैं?”
क्या आप अपने आप को नारीवादी मानती हैं या नहीं। और ऐसा क्यों?”   

इन सवालों में समूह में मंथन करना और अपने अंदर झांककर मंथन करना बहुत अहम होने के साथ साथ काफी कठिन रहा, क्योंकि इनमें से कई बातें आमतौर पर मैं नजरदांज कर देती हैं, ऐसा इसलिए भी क्योंकि कुछ बातों के लिए मैं बहुत अडिग हूं और कुछ बातों पर चर्चा करने से डर भी लगता है।


सत्र के आखिरी हिस्से में नारीवाद पर बहुत रोचक चर्चा की गई, इतनी खूबसूरती से समझ बनाई गई कि शायद मैं कभी भूल पाऊंगी।

नारीवादी एक विचार है, एक विचारधारा है जो बताता है कि न्यायपूर्ण, न्यायसंगत समाज कैसा दिखना चाहिए? ये एक सामाजिक बदलाव की रणनीति है। नारीवाद ये बताता है कि सभी पुरुष और महिलाओं में सत्ता संबंध कैसे होने चाहिए, सभी जेंडर और यौनिक पहचनों में सत्ता संबंध कैसे होने चाहिए? ये सभी आर्थिक वर्गों की बात करता है, आज तक कोई विचारधारा घर और परिवार के अंदर तक नहीं पहुंची वहीं नारीवाद घरों में क्या हो रहा है, हमारे बैडरुम के अंदर के सत्तासमीकरण की भी बात करता है। इसके साथ ही अपने अंदर चल रहे विचारों का विश्लेषण करना, विचारों को चुनौती देना भी नारीवाद का अहम हिस्सा है।

नारीवाद निजी ही राजनैतिक है और राजनीति भी निजी है की सोच पर चलता है मसलन हिंसा एक महिला, दो महिला, 10 महिलाओं का नहीं बल्कि हर महिला से जुड़ा हुआ है।  

नारीवाद को और गहराई से समझने के लिए प्रतिभागियों को तीन हिस्सों में बांटकर एक-एक केस स्टडी दी गई और उसका नारीवादी विश्लेषण करने के लिए कहा गया।  मेरे समूह को मिली कहानी के मुताबिक एक संस्था है जो किशोरियों के साथ एक गांव में काम करती है, उन्होंने एक पुरुष फुटबॉल कोच को नियुक्त किया है जो उन्हे फुटबॉल खेलना सीखाता है। गांव के लोगों को कोच से आपत्ति है क्योंकि वो पुरुष है, वही प्रोजेक्टर मैनेजर भी कुछ सोच विचार में हैं। हालांकि कोच का व्यवहार और ट्रेनिंग का तरीका अच्छा है और लड़कियों से भी उनकी अच्छी बनती है। इस मामले को लेकर प्रोजेक्ट मैनेजर ने लड़कियों से समय समय पर बात भी की। वहीं एक दिन कोई लड़की कोच के खिलाफ शिकायत करती है तो प्रोजेक्ट मैनेजर बिना पड़ताल किए कोच को निकाल देती है हमें इस कहानी से क्या समझ आया, इस कहानी में क्या हुआ और क्या हो सकता था उसपर चर्चा करनी थी।  


हमारी चर्चा के मुताबिक यहां पितृसत्तात्मक सोच दिखाई देती है जहां पुरुष और महिलाओं को महज उनकी यौनिकता के रुप में देखा जाता है, बिना पुरुष साथी से बात किए उसे निकाल दिया जाना सही नहीं है, ये एक रुढ़िवादी सोच,डर और सामाजिक दवाब के प्रति इशारा करता है। यहां भय की राजनीति दिखी और ये निर्णय पूर्णता पूर्वानुमान के मुताबिक लिया गया दिखा।

तीसरा दिन मेरे लिए सबसे बेहतरीन रहा क्योंकि इस दिन में जेंडर, जाति और नेतृत्व को लेकर चर्चा की गई, इन मुद्दों को जोड़कर कम ही चर्चा की जाती है। सत्र की शुरुआत ही बेहद धमाकेदार रही यहां हमें अपना परिचय अपने दूसरे नाम को बताते हुए करनी थी, जाहिर है हमारा दूसरा नाम हमारी जाति का परिचय दे ही देता है। इसके बाद जाति को लेकर माइंड मैपिंग की गई- इस दौरान छोटी सी छोटी चीज कैसे जाति से जुड़ी हुई है जैसे धर्म, पहनावा, भाषा, त्यौहार, भूगौलिक और तमाम तरह की पेचिंदगी सामने आई।

जाति एक तरह का ढांचा है, एक तरह से समाज की व्यवस्था हैं जो जीवन के हर पहलू को प्रभावित करती है। अगर देखा जाए – कौन कैसा श्रम करेगा, कौन और किस चीज का उत्पादन होगा और संसाधन (जल, जंगल, ज़मीन, पशु और पेशे) पर किसका नियंत्रण होगा ये जाति की व्यवस्था तय करती है और ये शुद्धता और अशुद्धता की व्यवस्था भी बनाता है। उदाहरण के तौर पर जो भी शरीर से बाहर निकलता उससे जुड़े हुए काम अशुद्ध कहलाते हैं जैसे मैला उठाना, मरे हुए जानवरों की खाल उतारना आदि।

जाति व्यवस्था सीढ़िनुमा ढांचे के जैसे है जहां अलग-अलग स्तर पर अलग अलग जातियां है, देखा जाए तो तकरीबन अबतक 4000 जातियां बन चुकी है, और तकरीबन हर रोज इस व्यवस्था को दोहराया जा रहा है। गौर करने वाली बात ये है कि इस सीढ़िनुमा ढांचे में लचीलापन है इसलिए ये सदियों से चलती जा रही है, हर जाति के लोग अपने से उपर वाली जाति से आगे बढ़ना चाहते हैं और साथ ही अपने से नीचे वालों को उपर नहीं आने देते। जाति के बाहर बेटी और रोटी का व्यवहार नहीं किया जाता है, जाति के बाहर शादी करना और समुदायों के बीच लड़कियों की गतिशीलता और यौनिकता पर कंट्रोल रखा जाता है। ऐसा नहीं दो अलग अलग समुदायों के लोगों की शादी से जन्मे बच्चे को नई जाति मिलती है और इसलिए नई नई जातियां बन रही है।

वहीं जब अंग्रेजों ने एक नए सिस्टम की शुरुआत की जहां जनगणना करके उन्होंने लोगों को SC/ST जाति में बांटा गया, इस बात का लोगों ने भरपूर विरोध किया क्योंकि जो लोग अपने आप को ऊंची जाति का मानते थे उन्हें नीची जाति में नहीं जाना था,इसके साथ ही सीढि में ऊपर जाने की व्यवस्था से उनका अधिकार छीनता नजर आ रहा था, जो चीज समुदाय तक थी अब वो राज्य स्तर पर आ पहुंची थी। उदाहरण के तौर पर यादव अपने आप को क्षत्रिय बताते है पर OBC का कार्ड खेलने से परहेज नहीं करते, राजनीतिक फायदे को ध्यान में रखते हुए इसी के जरिए वो संसाधनों के और करीब आ जाते हैं। इसलिए ये कहना गलत है कि जाति के सिस्टम में जब एडजस्ट हो जाता है।

अगर ध्यान से जाति व्यवस्था को समझने की कोशिश की जाए तो कई अहम बिंदू सामने आते हैं जैसे ज्ञान जो धार्मिक परिपेक्ष्य से आता है वो केवल ब्राहमणों का एकाधिकार है, व्यवस्था और नियमों को बनाना भी उन्हीं के अधिकार क्षेत्र में आता है। ऐसा लगता है कि ये व्यवस्था प्राकृतिक है, भगवान की देन है और इसका मानकीकरण किया जाता है ऐसे में लोगों को खुद लगने लगता है कि ये काम छोटा है और क्योंकि मैं ये काम करता या करती हूं मैं नीची जाति की हूं, इसके साथ ही ये सिस्टम ग्लानि पर भी चलता है, ये सफल इसलिए है क्योंकि इसमें सभी की सहमति और सबका विश्वास होता है। ये व्यवस्था एक बेहद खूबसूरत जाल जैसी है जो ये तक बताता है कि हम क्या खा सकते हैं, क्या नहीं, क्या पहन सकते हैं, कहां जा सकते हैं या कहां नहीं आदि। जाति व्यवस्था ये तय करती है कि कौन सा ज्ञान किसके पास रहेगा, और किसी ने ज्यादा ज्ञान हासिल कर लिया तो उससे वो छीन लिया जाता है। उदाहरण के तौर पर एकलव्य। दूसरा उदाहरण राम राज्य के दौरान का है, जहां एक शंभू नाम का शुद्र रहता था जो आध्यतमिक ज्ञान के लिए पूजा कर रहा था। उसी समय एक ब्राह्मण के बेटे की मौत हो गई। ऐसे में राजा राम ने उसकी हत्या कर दी। वहीं महिलाओं को श्लोक, वेद और आध्यात्म के रास्ते में नहीं चलने दिया जाता क्योंकि वो विचार विमर्श करने लगेंगी और व्यवस्था को चोट पहुंच सकती है।

इसी तरह से ब्राह्मण और क्षत्रियों में सांठगांठ होती है ताकि ब्राहमणों के ज्ञान को बचाया जा सके और क्षत्रियों के राज्य की मान्यता बनी रही।

जातिवाद पर समझ को आगे बढ़ाते हुए पितृसत्ता और महिला कि स्थिति को जानने की कोशिश की गई। सबसे अहम बात तो सामने आई वो ये थी कि महिलाओं की कोई जाति नहीं होती और दूसरी कि ऊंची जाति की महिलाओं के शरीर पर ज्यादा कंट्रोल किया जाता है, भले ही उन्हें हर चीज उपलब्ध कराई जाती है पर उन्हें सिर्फ सुंदर दिखने, घर संभालने, बच्चा पैदा करने के लिए कहा जाता है। पितृसत्ता एक हथियार है जो जाति व्यवस्था बनाए रखने के लिए इस्तेमाल किया जाता है और हां केवल महिलाएं ही इस व्यवस्था को तोड़ सकती है।

ऊंची जाति की महिलाओं में किसका वीर्य जाएगा ये तय होता है, पति के मरने पर चादर चढ़ाने की प्रथा होती है, वहीं उनके देवर के साथ शादी करवा दी जाती है ताकि ऊंची जाति की महिला अपनी ही जाति में रहे वहीं नीची जाति की महिलाओं की किसी के साथ ही शादी करवा दी जाती है।

अगर पुरुषों की बात की जाए तो उन्हें अधिकार है कि उनका वीर्य ऊंची या नीची जाति की महिलाओं को जाए। पर अगर ये पुरुष नीची जाति का है तो उसका और ऊंची जाति की महिला के साथ संबंध प्रतिबंधित है और इसकी सज़ा मौत भी हो सकती है। इसके बाद कुछ सवालों पर गहन चर्चा की गई जैसे आपकी जाति की वजह से आपको क्या फायदा मिला ? जाति की वजह से सामने आने वाली एक चुनौती? और जाति के साथ साथ औरत होने की वजह से क्या चुनौती महसूस की?  
ये एक काफी मुश्किल सत्र रहा क्योंकि जाति से जुड़े मेरे खुद के अनुभव बेहद कड़वे है, सफलता की सीढ़ि पर चढ़ते हुए एक महिला और यादव होने की वजह से मैंने मीडिया में जो चुनौती महसूस की, जो लड़ाई लड़ी और हारी वो एक दर्द की तरह आज भी मेरे दिल में ज़िंदा है इसलिए जाति की चर्चा मुझे बहुत परेशान करती है। वहीं एक आदिवासी महिला एक्टिविस्ट ने भी अपने साथ हुए भेदभाव के बारे में खुलकर बताया। यहां तक एक महिला ने ऊंची जाति का होकर अपने से कमतर जाति में शादी करके नियम तो तोड़े पर इस चर्चा से उन्हें समझ में आया कि कैसे इस बात का फायदा उनके पति ने उठाया अपने आप को बड़ा दिखाने के लिए।

इसके बाद प्रतिभागियों को तीन समूह में बांटकर दो-दो केस स्टडी दी गई जहां उन्हें नेतृत्व और जाति व्यवस्था को लेकर चर्चा करनी थी। पहली कहानी में एक संस्था है जो दलित मुद्दों पर काम करती है, हर काम लोगों में बंटा हुआ पर टॉयलेट की साफ सफाई एक वाल्मीकि करता है जिसके बाद नेतृत्व ने तय किया कि संस्था के लोग एक के बाद एक टॉयलेट साफ करने की ज़िम्मेदारी उठाएंगे। उनके दफ्तर में तकरीबन 3 साल के बाद एक अकाउंटेंट ने ज्वाइन किया, जब उसे भी टॉयलेट साफ करने के लिए कहा गया तो उसने साफ मना कर दिया और फिर जॉब छोड़ने की बात भी की? ऐसे में नेतृत्व क्या करेगा? 

दूसरी केस स्टडी में दलित और नीची जाति की महिलाओं द्वारा एक टिफिन सर्विस शुरु की गई। कुछ समय बाद संस्था ने इस समूह के साथ मुस्लिम महिलाओं को जोड़ा जिसका काफी विरोध किया हालांकि नेतृत्व के समझाने पर महिलाएं मान गई पर 6 महीने के बाद जब इस सिस्टम से वाल्मीकि समुदाय की महिलाओं को जोड़ने की बात उठी तो बाकि महिलाओं ने जॉब छोड़ दिया। अब अगले दिन 250 टिफिन का ऑडर पूरा करना है ऐसे में नेतृत्व क्या करेगा?

ये दोनों ही स्थिति काफी पेंचीदा रही, अगर काम के हिसाब से देखा जाए तो दोनों स्थितियों में नेतृत्व के पास कर्मचारियों की बात मानने के अलावा कोई विकल्प नहीं था, और शायद ये एक समझदारी वाला कदम माना जाता पर इसका सीधा मतलब ये है कि मूल्यों और विश्वासों पर समझौता करना। किसी भी आम लोगों की तरह हमने कई सुझाव दिए जैसे बातचीत करना, नियम बनाना, कर्मचारियों को समझाना इत्यादि पर एक बात जो चर्चा में एकदम उभर कर आई वो कि जिन आदर्शों और मूल्यों को लेकर संस्था समाज में बदलाव लाना चाह रही है उसपर उन्हें संस्था के अंदर ही समझौता करना पड़ रहा है तो सोचने की बात है और कई बार नेतृत्व को कठोर होकर अपने आदर्शों पर खड़ा होना चाहिए क्योंकि कुछ बातें ‘non-negotiable’ होती है जिनपर अच्छे नेतृत्व को समझौता नहीं करना चाहिए।

चौथे दिन का सत्र महिला के खिलाफ हिंसा पर आधारित था जहां प्रतिभागियों को अलग-अलग समूह में बांटकर अलग अलग जगहों पर महिलाएं कितनी सुरक्षित है इसपर चर्चा करनी थी- घर, बाजार, बस, कार्यस्थल।

मैं जिस समूह में थी उन्हें घर में महिलाएं कितनी सुरक्षित है उसपर चर्चा करनी थी – हमेशा से हमे बताया जाता है कि घर सबसे ज्यादा सुरक्षित है लेकिन हमारी चर्चा के बाद लगा कि ये एक सोची समझी चाल है जिससे लड़कियों की गतिशीलता, प्रगति और यौनिकता पर नियंत्रण रखा जा सके क्योंकि महिलाओं की सुरक्षा एक पितृसत्तात्मक सोच है, महिलाओं की यौनिकता को परिवार की इज्जत से जोड़कर देखा जाता है, हमारे पास अपने से जुड़े फैसले लेने का कितना अधिकार है- चाहे वो खाना हो, कपड़ा हो, पैसा हो, घर से बाहर जाने की आज़ादी हो, रिश्ता बनाने की आजादी, लड़कियों को बाहर तो क्या घर में भी अकेले छोड़कर नहीं जाते, इस तरह की मानसिकता बन गई है कि लड़कियों को खुद रात में बाहर निकलने से डर लगता है, बाहर हुई हिंसा के बारे में बात करना आसान है पर परिवार के अंदर जैसे बाल यौन शोषण, शादी के अंदर बलात्कार, दहेज, घरेलू हिंसा के बारे में बात करना तकरीबन नामुमकिन जैसा लगता है। 


इसलिए सबसे ज्यादा असुरक्षित महिलाएं घर में होती है, फिर कार्यस्थल और सड़क पर, इसके बाद सार्वजनिक स्थल जैसे बाजार और बस में।
इस चर्चा में देखने को मिला की हर जगह कैसे भय की राजनीति की जाति है और ये भय महज शारीरिक नहीं बल्कि मानसिक है, दृश्य और अदृश्य है, कई बार सीधे तौर पर ये डर सामने आ जाता है और कई बार अप्रत्यक्ष रुप से अपना रुप दिखाता है।

दोपहर का सत्र मशहूर आंदोलनकारी गौरी चौधरी ने लिया जो एक्शन इंडिया से जुड़ी हुई है उन्होंने महिला पंचायत और नारीवादी आंदोलन के बारे में विस्तृत से बातचीत की। ये काफी उत्साहवर्धक रहा क्योंकि हमें पता चला कि हमारी ज़ड़े कहां से आती है और कैसे नारीवादी आंदोलन के जरिए आज हम कई बातें कर पा रहे हैं जो शायद पहले करना नामुमकिन था।


पांचवा और आखिरी दिन नारीवादी आंदोलन पर आधारित रहा, इस दौरान सालों से चल रहे अलग-अलग नारीवादी आंदोलनों पर चर्चा की गई, ये काफी सोच में डालने वाला, उत्साह पैदा करने वाला साथ ही दिलचस्प सत्र रहा क्योंकि मुझे लग रहा था कि काश इस पर और चर्चा की जा सके और हमें उन सभी नारीवादी लोगों के बारे में और जानने को मिले। कितनी बड़ी बात है कि आज हम महिलाएं यहां एकट्ठा होकर ऐसे मुद्दों पर बातचीत कर पा रहे हैं कि जो कुछ सालों पहले प्रतिंबधित थे छोटी सी छोटी बात जैसे महिलाओं की शिक्षा हासिल करने के लिए भी कितनी जद्दोजहद रही थी और हां आज भी है पर स्थिति काफी सुधर गई है।


मुझे बस इतना ही लगता है कि ये जंग बहुत लम्बी है, जहां तलवार, बंदूक और भाले की जरुरत तो नहीं है पर एकसाथ एकजुट होकर इस लड़ाई का हिस्सा बनना है ताकि जो भेदभाव हो रहा है उसे सिरे से चुनौती दी जा सके, एक ऐसे समाज की संक्षरचना की जा सके जहां जेंडर, यौनिकता, जाति जैसे ढांचों के आधार पर भेदभाव न किया जाए और किसी को उनके मूलभूत अधिकारों से वंजित न किया जाए। बहुत मुश्किल है शायद एक जीवन भी कम पड़ जाए पर जबतक जान हैं तब तक लड़ना है पूरे जोश के साथ J

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