Wednesday 2 August 2017

हिंसा को चुनौती देने के लिए तैयार हैं महिलाएं :-)



मेरा तो पति ही नहीं है, तो हिंसा का तो सवाल ही नहीं उठता
जो महिलाएं थोड़ी शरीर से ठीक हैं वो तो आदमी को धक्का मारकर सबक सीखा सकती हैं, जब वो उनपर हिंसा करते हैं, लेकिन हम नहीं ।

बागपत के बिनौली में स्वंय सहायता समूह की महिलाओं के साथ तीसरा सत्र जेंडर आधारित हिंसा और महिला आधारित हिंसा को लेकर रहा, ये सत्र न महिलाओं के लिए आसान था और नाही हमारे लिए। मैंने युवाओं के साथ, किशोर-किशोरियों के साथ जेंडर पर चर्चा कई बार की है, लेकिन ग्रामीण परिपेक्ष्य में जहां मूलभूत सुविधाओं का आभाव है, ज्यादातर आमदनी खेती पर निर्भर करती है और वो भी पुरुष के हाथों में है, ऐसे में महिलाओं की जिंदगी घर की चार दीवारी में सिमट कर रह जाती है। भले ही इंसान चांद पर पहुंच गया हो, घर का काम अब रोबोट के हाथ में हो, सड़कों पर गाड़ियां हवा से बातें करती हो, सुपर फॉस्ट ट्रेन चलती हो, दिल्ली से अमेरिका का सफर कुछ घंटों में सिमट गया हो, पर गांव की औरत के लिए उसका जीवन उसी ढर्रे पर चलता है, उसे क्या मालूम कि दुनिया बदल गई है, उसे तो अगर एक आधे घंटे के लिए टीवी देखने को मिल जाए तो वो भी किसी जादू से कम नहीं है।



सत्र की शुरुआत भेड़िए और बकरी के खेल से की गई, मज़ेदार बात ये है कि ये समूह बहुत ही चुस्त-दुरुस्त है, ऐसे में भेड़िए बने प्रतिभागी और बकरी बने प्रतिभागी के बीच में काफी खींचतान हुई।


अब तो शाम भी हो जाए न तो भी मैं हार नहीं मानूंगी, किसी भी कीमत पर मैं गोले से बाहर निकल कर ही रहूंगी

काफी दिलचस्प मोड़ पर चल रहे खेल में उस समय ट्विस्ट आया जब एक बकरी के होते हुए दूसरी महिला गोले में घुस गई और भेड़िए बने प्रतिभागी कन्फूयज़ होगे। ये दोनों महिलाएं लगभग 50 साल से पार थी, ये तकनीक के बारे में मैंने दूर दूर तक नहीं सोचा था। इस खेल का मकसद कई न कई महिलाओं की समाज में मौजूदा स्थिति को दर्शाना था, कैसे एक महिला अलग अलग बंदिशों और बेड़ियों से बंधी हुई है, और वो तभी निकल सकती है जब वो चाहे, पर इस नए ट्वीस्ट के बाद प्रतिभागियों ने एक और समझ को सामने रखा कि कैसे एक महिला दूसरी महिला की मदद कर सकती है। रोचक बात ये है कि बकरी बनी प्रतिभागी गोले से बाहर निकल भी गई, और उसे इस बात का पता भी नहीं चला कि किसी ने उसकी मदद की है ऐसे में उसका आत्मविश्वास अपने उपर और बढ़ गया। मैं हैरान थी कि कैसे कई बार छोटी छोटी बातें हमें जीवन के बड़े बड़े सबक सीखा जाती है, कुछ ऐसी ही सीख इन महिलाओं ने मुझे दी थी।


महिला आधारित हिंसा को लेकर दो फिल्में दिखाई गई, पूरे माहौल में एक गंभीरता और डरावनी शांति थी, इतना खुलकर हंसने और खेल में भाग लेने वाली महिलाएं एकदम मौन हो गई थी। इसके बाद प्रतिभागियों के साथ एक महिला के जीवन में अलग अलग समय होने वाली हिंसा पर आधारित एक कहानी को बांटा। सत्र के अगले हिस्से में महिलाओं को समूहों में बांटा गया जहां उन्हें ऐसी ही आपबीती को बांटना था। आजतक जो बातें महिलाओं के दिलों में कहीं छुप्पी हुई थी उसे छोटे समूह में बोलना बहुत मुश्किल रहा होगा, शायद कई महिलाएं वो हिम्मत नहीं भी कर पाईं हो, पर ये मौका था कि अपने दिल के दर्द को बांटने का। 



मैं विधवा हूं दीदी, मेरे लम्बे काले बाल है- बालों को लेकर भी ससुराल वाले ताना मारते हैं। मुझे हर बात का दोष दिया जाता है, गंदी नज़रों से देखा जाता है

शराब पीकर पति द्वारा मारपीट, घर से बाहर निकलने पर पाबंदी, दहेज जैसी बातें तो मानो यहां जिंदगी का अभिन्न अंग बन गई है, मुझे इतनी घबराहट हो रही थी कि मानो यहां से भागकर कहीं छुप जाऊं, सोच ही नहीं पा रही थी कि कैसे ये महिलाएं इतना कुछ सह जाती है? कहीं न कहीं हिंसा को लेकर समझ अभी भी मारपीट तक सीमित है, ऐसे में हिंसा क्या है, हिंसा के कितने कहे-अनकहे रुप है, हिंसा बार बार क्यों होती है और क्या इस हिंसा से बचा जा सकता है इस पर विस्तार से बात की गई। जब मैं ये सब बांट रही थी तो दो महिलाएं आपस में कुछ कह रही थी, मेरे पूछने पर एक महिला ने कहा- 


जी हिंसा हिंसा है हर जगह, एक औरत का जीवन तो हिंसा से शुरु होकर हिंसा पर खत्म हो जाता है। पैदा होने से लेकर मरने तक औरत तो बस पीटती ही रहती है कभी मायके वालों की तरफ से कभी ससुराल वालों की तरफ से। पर मैंने तय कर लिया है कि बस अब और नहीं, ये सही नहीं है और मैं इसे बर्दाश्त नहीं करुगी।

पहले तो जब कभी लगता था कि शिकायत करने जाएंगे, तो लोग क्या कहेंगे पुलिस भगा देगी पर कानून की जानकारी से ये तो पता चल गया कि हमारे लिए भी बहुत कुछ है। जब हम बोलेंगे तो पुलिस को सुनना पड़ेगा


ये बातें सुनकर ताकत मिल रही थी और थोड़ा बेहतर भी महसूस हो रहा था, एक उम्मीद की किरण नज़र आ रही थी। सत्र के आखिरी पड़ाव में महिलाओं को किसी एक हिंसा को लेकर कहानी तैयार करनी थी और बाद में उसे एक नाटक के तौर पर सभी लोगों के सामने पेश करना था।



एक समूह ने दहेज प्रथा को लेकर नाटक बनाया जहां लड़की के माता पिता ने दहेज देने से न केवल इनकार किया बल्कि लड़के वालों के खिलाफ पुलिस में शिकायत भी दर्ज कराई जिसके बाद लड़के वालों ने माफी मांगी और लड़की से बिना किसी शर्त के शादी करने की विनती की।


दूसरे समूह ने शराबी पति द्वारा की जाने वाली घरेलू हिंसा पर आधारित नाटक बनाया- जहां शराबी बने पति ने बेहद उमदा एक्टिंग की, ऐसी कि प्रोफेशनल अभिनेता अभिनेत्री भी शर्मा जाए, शराबी को उसकी मां समझाने की कोशिश करती है, बहू का साथ देती है, लेकिन जब पानी सिर से गुजर जाता है तो दोनों महिला समूह से मदद लेकर पुलिस में शिकायत दर्ज कराती है और उसके बाद पति को सज़ा दिलाती है। उन्होंने पति को शर्मिंदा होते हुए माफी मांगते हुए भी दिखाया।



तीसरे समूह के नाटक ने मुझे काफी रोमांचित किया क्योंकि उन्होंने अपने समाज (मुस्लिम समुदाय) की समस्या जिसके बारे में बात नहीं की जाती को बहुत बखूबी से पेश किया। ज्यादा बच्चे पैदा होने से महिला की सेहत और परिवार की आर्थिक स्थिति पर आधारित नाटक ने महिला की जद्दोजहत को दिखाया।


ये नाटक और एक्टिंग काफी प्रेरणादयक रही, समय में आया कि ये महिलाएं कितनी प्रतिभावन है, अभाव है तो बस सही जानकारी और उस मौके का जिसके बारे में इन्हें पता भी नहीं है। इन नाटकों ने मुझे जीने की एक और वजह दी है, अब ऐसे ही साहस के काम को और आगे बढ़ाना है, ज्यादा से ज्यादा महिलाओं तक पहुंचना है ताकि वो अपने अस्तित्व को खुद तलाश पाए और अपनी जिंदगी की राह खुद तय करें।   

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