Wednesday 26 April 2017

ये जेंडर है क्या ?



तुम भी खाना बनाना सीख लो, नहीं तो ससुराल जाकर क्या करोगी
अब तुम बड़ी हो गई हो लड़कों के साथ मत खेला करो
लड़कों के सामने ज्यादा मत बात किया करो, झुककर रहो अगर लड़के की गलती है तो भी

स्कूल से या ट्यूशन से आने के बाद भी खाना बनाना और घर का काम करना पड़ता है
काम करने का मन नहीं करता तो घरवालों से मार खानी पड़ती है
लड़की हो, इतना पढ़ने का क्या फायदा
अगर भाई-बहन बाहर साथ जाते हैं, भाई ट्यूशन के लिए भी छोड़ने जाता है तो बाहर वाले दोनों को बॉयफ्रेंड और गर्लफ्रेंड समझते हैं


ये कुछ ऐसे संदेश हैं जो वर्कशॉप में भाग लेने वाली प्रतिभागियों ने अपने परिवार, आस पड़ोस के लोगों से सुनी हैं, इसलिए क्योंकि वो लड़कियां हैं। और फिर ये सवाल उठता है कि जेंडर आधारित भेदभाव है कहां? बच्चों से जेंडर पर आधारित चर्चा क्यों करनी चाहिए? क्या किशोर-किशोरियां जेंडर जैसे संवेदनशील मुद्दे को समझ भी पाएंगे। उन सभी सवालों का जवाब ये चंद वाक्य हैं। 

जेंडर, यौनिकता और प्रजनन स्वास्थ्य पाठ्यक्रम में जेंडर पर बातचीत करना और समझना बनाना एक अहम पड़ाव हैं। प्रतिभागी अपने जीवन में झांक पाएं, जेंडर को देख पाएं और अगर उन्हें लगता है कि उनके लड़के होने या लड़की होने की वजह से उन्हें किसी अनचाहे डिब्बे में बंद कर उनकी क्षमताओं पर रोक लगाई जा रही है तो उसे तोड़ने की हिम्मत जुटा पाए ये एकमात्र उद्देश्य होता है इस सत्र का।

वर्कशॉप की शुरुआत एक मनोरंजक खेल के साथ हुई जिसमें प्रतिभागियों को निर्देश के अनुसार दौड़ना, रुकना, नाचना और कूदना था। मुझे ये खेल काफी पंसद आया क्योंकि भले ही निर्देश दिए जा रहे हो, लेकिन यहां परिभाषाओं का ढांचा तोड़ा जा रहा था, इसके साथ साथ नई परिभाषाओं का बनाया और तोड़ा जा रहा था और प्रतिभागी खुलकर भाग ले रहे थे।



पहले भाग में बॉय और गर्ल एनिमेशन वीडियो दिखाई गई। 

कानाफूसी के मज़ेदार खेल की मदद से प्रतिभागियों के साथ जेंडर की कहानी की रचना की गई। जेंडर की कहानी गढ़ना आसान नहीं है, क्योंकि कई मूलभूत मुद्दे बीच में आते है, यहां जब सवाल उठता है कि बच्चे आते कहां से हैं तो मैंने कई बार प्रशिक्षकों को अटकते हुए देखा है, किशोर-किशोरियों को छोड़े तो युवा से बातचीत करते दौरान भी एक अलग हिचक देखी है पर यहां परिस्थिति बिलकुल विपरित थी। ऐसा इसलिए क्योंकि जब सवाल उठा कि महिला गर्भवती कैसे होती है तो झट से जवाब आया महिला और पुरुष सेक्स करते हैं तो महिला गर्भवती होती है। मेरे लिए ये बहुत बड़ी बात थी, बहुत भावुक थी मैं क्योंकि ये बात एक 12 साल की प्रतिभागी ने एकदम आत्मविश्वास से लबरेज होकर कही थी। यही छोटे-छोटे पल साहस के काम की गहराई और जरुरत का कदम कदम पर एहसास दिलाते हैं।




इसके बाद साहस टीम के सदस्यों और हमारे साथ आए नए सदस्य रॉबिन ने अपने जीवन की वो कहानी प्रतिभागियों के साथ सांझा की जिसमें उन्हें लड़के होने या लड़की होने का एहसास कराया गया। इस एहसास की यादें अच्छी नहीं थी क्योंकि अब तक ये यादें उनकी क्षमताओं पर पहरा देती है साथ ही उनकी सोच का दायरा संकुचित करती हैं।

जेंडर को परिभाषित करने के बाद प्रतिभागियों को 4-4 के ग्रुप में बांटा और उनसे 3 ऐसे संदेशों को सांझा करने के लिए आमंत्रित किया गया जिनसे उन्हें पता चला कि वो लड़की हैं या लड़का।

जब मैं आज वर्कशॉप के लिए आ रही थी तब पापा के लिए खाना बनाना पड़े जबकि मैं वर्कशॉप आने के लिए लेट हो रही थी
पार्क से लेट पहुंचने पर मम्मी डांटती है ताने देती हैं जबकि मेरा भाई कितना भी लेट आए उससे कोई कुछ नहीं कहता
पापा कहते हैं पढ़-लिखकर क्या करेगी, झाडू पोंछा ही तो करना है तुझे
तुम रात को बाहर नहीं जा सकती, लड़कों के साथ घूमना नहीं चाहिए, सलवार सूट के उपर दुपट्टा डालना है







इन सभी संदेशों को सुनना मेरे लिए बहुत मुश्किल था, आखिर हम अपने बच्चों को कैसी बातें सीखा रहे हैं। कहा जाता है कि बच्चे देश का कल हैं, लेकिन जिनका आज इतनी भ्रांतियों से भरा है वो देश का कल कैसे बनेंगे। इन संदेशों ने मेरे मन की घबराहट को काफी बढ़ा दिया था।

हम लोग ज्यादातर 4 जगहों में रहते हैं- परिवार, स्कूल, सार्वजनिक स्थल और खेल-कूद। इसी को ध्यान में रखते हुए प्रतिभागियों को एक बार फिर 4 अलग-अगल ग्रुप में बांटा गया और उन्हें उपरोक्त जगहों में दिखने वाले जेंडर आधारित भेदभाव को सांझा करने के लिए आमंत्रित किया गया।
प्रतिभागियों ने कई रोचक और अहम बातें बड़े गोले में बांटी, जैसे सार्वजनिक स्थल वाले ग्रुप का मानना था-

अगर पार्क में लड़का और लड़की साथ दिख जाए तो उनपर प्रेमी-प्रेमिका होने का ठप्पा लग जाता है
होटल में पैसा लड़के ही खर्च करते हैं
सार्वजनिक स्थलों में लड़के चिपकते हैं, लगता है चांस मार रहे हो। हो सकता है लड़की भी चांस मारना चाहती हो
लड़की के मदद करने को गलत समझा जाता है


घर या परिवार में- ज्यादातर घर के काम लड़कियों की जिम्मेदारी समझा जाता है, लड़कों को बहनों के मुकाबले ज्यादा खाने को मिलता है, लड़कों को पढ़ने को भेजा जाता है लड़कियों को नहीं, भाइयों के साथ सोने को भी मना किया जाता है। 

स्कूल में- लड़के और लड़कियां अलग-अलग बैठते हैं, टीचर सिर्फ लड़कों को डांटती है, लड़कों को खेलने दिया जाता है, लड़कों के क्लास में बोलने पर कोई रोक-टोक नहीं होती, लड़के खुलेआम गाली-गलौच करते हैं। 

खेल में- ज्यादातर भाग-दौड़ और ताकत वाले खेल लड़के खेलते हैं जैसे फुटबॉल, क्रिकेट, हॉकी, कबड्डी आदी वहीं लड़कियां घर-घर खेलती है, खेल के मैदान में सबसे ज्यादा लड़के दिखते हैं।

इस भारी सत्र के बीचो-बीच काफी मज़ेदार और चौंकाने वाली बातें भी हुई। मसलन कई प्रतिभागी मेरे पास पिछले सत्र से जुड़े सवालों के साथ पहुंचे-
ये कंडोम और फ्लेवर का क्या संबंध है
सेक्स करते समय या उसकी बात करते समय घिन क्यों आती है
दीदी ये बॉयफ्रेंड और गर्लफ्रेंड बनते कैसे हैं


मैंने मुस्कुराते हुए इन सवालों का खुलकर जवाब दिया। जो प्रतिभागी सेक्स शब्द निकालने में हिचकिचा रहे थे वो आज इससे जुड़े कितने अलग- अलग सवाल खुलकर पूछ रहे हैं, मैं बस खुश थी। दूसरी मज़ेदार बात ये रही कि प्रतिभागी अब इस गोले से इतने सहज हो गए हैं कि वो किसी को भी अपना साथी बनाने से नहीं घबराते, इसलिए पूरी लड़कियों को ग्रुप होते हुए भी साहस के साथी विनीत और एक समाचार पत्र से आए साथी रॉबिन को अपने गोले में न केवल शामिल किया बल्कि उनके साथ हर गतिविधि में बढ़-चढ़कर और खुलकर हिस्सा लिया।

रॉबिन ने कहा, बहुत बेहतरीन काम कर रहे हैं आप लोग। कितनी ताकत इस जगह में जिसने लड़कियों को इतना साहसी बना दिया है कि वो अपने जीवन से जुड़े मुद्दे पर खुलकर बातचीत तो कर ही रही हैं साथ ही अपनी राय भी रखने को सक्षम हैं।

इन सभी बातों को सुनकर, और हां इस ब्लॉग में चंद शब्दों में बयां करते हुए बस एक लम्बी गहरी सांस ले रही हूं।

शशश.... यहां सेक्स पर चर्चा हो रही है!

दीदी, मुझे पता है वो क्या होता है। जब एक लड़के और लड़की की शादी होती है न, तो सुहागरात की रात को जब वो करते हैं तो लड़की गर्भवती हो जाती है।

12 साल की प्रतिभागी के मुताबिक उपरोक्त वाक्य सेक्स को परिभाषित करता है। और उसे ये कैसे पता चला क्योंकि टीवी और फिल्म में ये दिखाया जाता है। मज़ेदार बात ये है कि परिभाषा तो दे दी लेकिन एक बार भी सेक्स शब्द को जुबान तक आने नहीं दिया। अजीब विडंबना है एक तरफ तो हम चाहते हैं कि बच्चों का सम्रग विकास हो लेकिन उन्हें सवाल नहीं उठाने देते, किताबों में प्रजनन का अध्याय तो है लेकिन उसे पढ़ाते नहीं, सेक्स की चर्चा महज तब होती है जब उसे हिंसा से जोड़कर देखा जाता है पर आनंद से इसका जुड़ाव हो सकता है इसपर चुप्पी साध ली जाती है, जिस वजह से बच्चों का जन्म हुआ है उस प्रक्रिया को ही एक सामाजिक धब्बा बना दिया है और फिल्मों में खुलकर इस बात को ऐसे पेश किया जाता है ताकि भ्रांतिया जमकर फूले फले।

साहस का 6वां सत्र सेक्स जैसे संवेदनशील मुद्दे पर समझ बनाने और उससे जुड़ी भ्रांतियों से धूल हटाने पर आधारित रहा। मुझे काफी घबराहट हो रही थी, दिल और दिमाग में सवालों की एक्सप्रेस दौड़ रही थी- सेक्स और प्यार पर क्या किशोरियां बात कर पाएगी, क्या ये मुद्दा उन्हें असहज कर देगा, क्या मैं उन्हें समझा पाउंगी कि सेक्स होता क्या है?, इस जानकारी का उनपर कैसा प्रभाव रहेगा इत्यादि। इन्हीं सवालों, घबराहट और आत्मविश्वास के साथ सत्र की शुरुआत की गई।

प्रतिभागियों ने सिक्के की रेस खेल में जमकर हिस्सा लिया, उन्हें खेलता देखकर मेरे मन में धमा-चौकड़ी कर रही शंका ने कुछ राहत की सांस ली।



पारो की कहानी सुनकर प्रतिभागियों ने काफी अलग-अलग जवाब दिए।
मैं लड़के को चांटा मारूंगी
मैं अपने माता-पिता से उसकी शिकायत करूंगी
मैं वहां से भाग जाउंगी

ये पूछने पर कि पारो तो लड़के को पसंद करती थी फिर क्या करती?
फिर क्या दीदी, मैं कुछ नहीं बोलती
पर दीदी उसने मुझसे पूछा ही नहीं ऐसे ही किस कर दिया
अगर पारो प्यार करती है तो फिर क्या कर सकते हैं

इसके बाद प्रतिभागियों को प्यार और सेक्स शब्द सुनकर मन में क्या विचार या भावनाएं आती है उसे पेपर पर लिखने का निमंत्रण दिया गया।

सेक्स तो पता नहीं, प्यार शब्द सुनकर गंदा लगता है
प्यार एक अजीब सी चीज़ है, कुछ अलग सा महसूस होता है, मुझे पता नहीं ऐसा क्यों महसूस होता है
प्यार का मतलब है किस करना, एक दूसरे के साथ निभाना, एक साथ खाना खाना
महज 4-5 प्रतिभागी थे जिन्हें सेक्स के बारे में आधी कच्ची पक्की जानकारी थी बाकियों ने पहली बार ये शब्द सुना था।


इसके बाद तीन अलग-अलग फिल्मों के जरिए सेक्स क्या होता है, महिलाएं गर्भवती कैसे होती हैं, सेक्स या संबंध बनाने के लिए सहमति की जरुरत और सुरक्षित सेक्स के लिए कंडोम का इस्तेमाल को लेकर प्रतिभागियों में समझ बनाई गई।


सत्र का ये हिस्सा काफी अहम रहा क्योंकि प्रतिभागियों को ये जानकारी पहली बार मिल रही थी ऐसे में वो इस जानकारी को पूरी तरह और सही तरह से समझ पाए इस बात का ध्यान रखना जरुरी था। इसके बाद जो हुआ उसने मुझे आश्चर्यचकित तो किया ही साथ ही मेरा दिल खुशियों से रोशन भी हो गया।

अगर लड़कियों को गर्भवती होना ही होता है तो महावारी का क्या फायदा?’

क्या महावारी के दौरान सेक्स करने से महिला गर्भवती हो सकती है?’

मुझे कैसे पता चलेगा कि मैं गर्भवती हो गई हूं?’

किन-किन तरीकों से एक लड़की या महिला गर्भवती हो सकती है?’

बच्चे 9 महीने के बाद ही क्यों पैदा होते हैं?’   

कोई सोच भी सकता है कि 12-14 साल की किशोरियां ऐसे सवाल पूछ सकती हैं? क्या हम अपने घर-परिवार या फिर स्कूल में इन बच्चों को वो जगह दे पाते है कि वो अपने सवालों को पूछ पाएं ? शायद नहीं तभी तो किशोर-किशोरियां ये जानकारी हासिल करने के लिए इंटरनेट या फिर अपने हमउम्र का सहारा लेते हैं और कई बार अज्ञानता में ऐसे कदम उठा लेते हैं जिनका दुष्परिणाम उन्हें जिंदगी भर भुगतना पड़ता है। पर इन किशोरियों के साथ ऐसा नहीं होगा क्योंकि इनके पास न केवल सेक्स और प्यार को लेकर सही जानकारी है पर अब सवाल खुलकर पूछने की हिम्मत भी है।





ये सत्र मेरे लिए और प्रतिभागियों के लिए काफी भारी रहा, इसलिए सोचा कि इस भारीपन को शरीर से बाहर निकाल फेंके इसलिए शैक-शैक शैक योर बॉडी खेल खिलाया। प्रतिभागियों ने न केवल खुलकर खेल का लुत्फ उठाया बल्कि ज्ञान की रोशनी को खुली बाहों से अपनाया।

Tuesday 25 April 2017

पीयर प्रेशर या पीयर प्लेज़र



लोहे के पेड़ हरे होंगे
तू गान प्रेम का गाता चल
नम होगी यह मिट्टी ज़रुर,
आंसू के कण बरसाता चल – रामधारी सिंह दिनकर

कविता की ये पंक्तियां काफी साहस देती है और लगातार आगे बढ़ने के लिए प्रेरित करती है। इसी के मद्देनजर जेंडर, यौनिकता और प्रजनन स्वास्थ्य पाठ्यक्रम में इस बार एक नया सत्र जोड़ा गया।  

किशोरावस्था ज़िंदगी का वो पड़ाव होता है जहां शारीरिक, मानसिक विकास के साथ साथ हम अपनी नई पहचान बनाने की कोशिश में जुट जाते हैं। इस उम्र में दोस्तों की खास अहमियत होती है ऐसे में कई बार हमारे पीयर परिवार से ज्यादा अहम हो जाते हैं और हम कूल बनने और पॉपुलर ग्रुप का हिस्सा बनाने की होड़ में कुछ भी करने को तैयार हो जाते हैं। इस होड़ में कई बार खुद को नुकसान उठाना पड़ जाता है, कुछ गलतियां हो जाती है जो ज़िंदगी भर का दर्द बन जाती है, अपनी भावनाओं को दबाना या फिर अपने आप को दोस्तों की तरह ढाल लेना और रास्ते से भटक जाना जैसे परिणाम भुगतने पड़ जाते हैं। ऐसे में किशोरियों में पीयर प्रेशर यानि दोस्तों/सामाजिक दबाव पर समझ बनाने की जरुरत महसूस हुई।



वर्कशॉप की शुरुआत एक वीडियो दिखाकर की गई। इस वीडियो में दिखाया गया कि कैसे दोस्तों के प्रभाव में आकर लड़के धूम्रपान करने लगते हैं।


इसके बाद प्रतिभागियों को 4-4 के ग्रुप में बांटा गया जहां उन्हें दोस्तों और पॉपुलर ग्रुप संबंधित सवालों पर चर्चा करने का निमंत्रण दिया गया। इस दौरान कई किशोरियों ने बताया कि वो क्लास के पॉपुलर ग्रुप का हिस्सा है, वो लोग साथ में खेलते हैं, खाना खाते हैं, पार्टी करते हैं, डांस करते है, मस्ती करते हैं। लेकिन कई बार पॉपुलर ग्रुप का हिस्सा होने की वजह से उन्हें कुछ ऐसे काम करने पड़ते हैं जो उन्हें पंसद नहीं मसलन पढ़ाई के समय खेल खेलना, या हमेशा साथ साथ रहना, जो ग्रुप कहे वहीं करना, क्लास में खाना खाने का मन करता है पर बाहर ग्राउंड में जाना पड़ता है आदि। ऐसे में कई बार उन्हें दबा हुआ महसूस होता है, लगता है कि उनकी कोई अहमियत नहीं हैं, इसके साथ ही ग्रुप द्वारा स्वीकार करने का दबाव बना रहता है। कई बार ग्रुप की बात नहीं मानने पर उनका मज़ाक भी उड़ाया जाता है।






प्रतिभागी, ग्रुप का जो लीडर होता है न दीदी उसके हिसाब से काम करना पड़ता है। हमेशा वो अपनी धौंस जमाती है, ऑडर चलाती है, अपनी मनमानी करती है और दूसरों के बारे में सोचती ही नहीं। मुझे बहुत बुरा लगता है।

अगली प्रक्रिया में कई अहम बातें सामने आई जैसे लगभग सभी प्रतिभागियों ने अपने दोस्तों के लिए मारपीट की है।
एक बार मेरी सहेली को दो लड़के छेड़ रहे थे। उसने मुझे बताया तो हमने मिलकर उन्हें पीटा।
दीदी मेरी दोस्त किसी से बहस नहीं कर पाती, तो जब भी उसकी लड़ाई होती है तो मैं आगे बढ़कर उसका साथ देती हूं





लगभग हर प्रतिभागी अपने दोस्त के प्लान में हामी भर देती हैं ताकि उन्हें बुरा न लगे। 



ये काफी रोचक है कि प्रतिभागियों के पास सवाल भी है और जवाब भी इसलिए पीयर प्रेशर की समझ बनाना उलझनों के बावजूद आसान भी रहा। सत्र की आखिरी प्रक्रिया के लिए प्रतिभागियों को 3 ग्रुप में विभाजित किया गया और अलग-अलग परिस्थितियां दी गई जिनपर उन्हें एक रोल- प्ले बनाने के लिए कहा गया।

तीन में से एक ग्रुप ने वो कर दिखाया जिसकी उम्मीद हममे से शायद किसी को नहीं थी। परिस्थिति में दो लड़कियों को कुछ लड़के छेड़ते है और परेशान करते हैं, जब वो ये बात अपनी दोस्त को बताती है तो उनकी दोस्त उन्हें चुप रहने की सलाह देती है। पर इस ग्रुप ने पीयर प्रेशर को चुनौती देते हुए परिस्थिति को बदल दिया- वो दो लड़कियों ने अपने माता-पिता को बताने की जगह खुद स्थिति से निपटने का फैसला लिया और लड़कों को मुंहतोड़ जबाव दिया। रोल-प्ले की तैयारी के दौरान ये दोनों किरदार हंस रहे थे, मजाक उड़ा रहे थे पर रोल-प्ले के दौरान जिस संजीदगी से दोनों ने किरदार निभाया वो रोंगटे खड़े कर देनेवाला था। देखने से ही समझ आ रहा था कि शायद बहुत कुछ बदल चुका है। 


चेहरे पर उभरे उस दर्द और आंखों में उस टीस का मेरे पास कोई जवाब नहीं था पर उनकी हिम्मत ने मुझे और शायद ग्रुप में बैठी सभी लड़कियों को एक नई राह दिखाई। मेरे लिए तो ये बदलाव की ही एक पतवार है जो भले ही छोटी दिखती है लेकिन उसमें न जाने कितने रास्तों को तब्दील करने की ताकत होती है।