Tuesday 4 October 2016

'पहचान की तलाश'



गुड मॉर्निंग दीदी
दीवार पर चार्ट पेपर लगाते समय एक प्यारी सी आवाज़ मेरे कानों में पड़ी, पलट कर देखा 3-4 लड़कियां कमरे के एक कोने में बैठी बड़ी उत्सुकता से मेरी तरफ देख रही हैं, साथ ही चार्ट पर लिखी बातें पढ़ने की कोशिश कर रही हैं। मैंने भी जवाब में उनका स्वागत किया।

पता है दीदी मैं इस वर्कशॉप के लिए बिलकुल टाइम से आई हूं। इतना सारा काम किया मैंने। सभी काम निपटाकर आई हूं।मैं थोड़ा मुस्कुराई और सोचने लगी कि रविवार के दिन एक 11 साल की बच्ची को भला क्या काम होगा? शायद देर से उठी होगी, देरी से ही नहाना वगैरह किया होगा। इतनी देर में एक 10 साल का बच्चा बोला, सन-डे को थोड़ा लेट हो जाता है, इतने सारे काम करने होते हैं। पर मैं तो हमेशा टाइम पर आता हूं। आश्चर्यचकित होकर मैंने पूछ ही लिया कि आखिर ऐसा क्या काम करना होता है?


लड़का बोला, रविवार है, तो आज थोड़ी देरी से उठा, फिर नहाया, पढ़ाई की, होमवर्क भी किया, खाना खाया फिर तैयार होकर यहां आ गया।
लड़की बोली, दीदी, सुबह उठकर पहले झाड़ू लगाया, फिर नाश्ता बनाया, घर की साफ-सफाई की, सबको खाना परोसा, बर्तन साफ किए, कपड़े धोए, नहाया पर समय हो गया तो यहां जल्दी भाग-भागकर आ गई।  मैंने एक लम्बी सांस भरी और मन में सोचा कि दोनों में महज एक साल का फर्क है, पर दोनों के लिए काम की परिभाषा कितनी भिन्न है, इनके जीवन में इतने जल्दी ही जेंडर अपनी पकड़ बना चुका है और इन्हें इस बात की ख़बर भी नहीं है।

साहसके सफ़र का दूसरा पड़ाव शाहबाद डेयरी की एक बस्ती में रहने वाले मज़दूरों के बच्चों के साथ कुछ ऐसे ही शुरू हुआ। पहली वर्कशॉप मैं कौन हूं?” पर आधारित रही। इन किशोर-किशोरियों में एक अलग तरह की ऊर्जा, सीखने की अनोखी चाहत, आंखों में चमक दिखी। मैंने ऐसी सीखने की चाहत न तो प्रिविलिज़ड लोगों और नाही आज के युवाओं में देखी है (ये मैं अपने दो साल के अनुभव से कह रही हूं और ये बात सभी लोगों पर लागू नहीं होती)। 

वर्कशॉप की शुरुआत कुछ सहमतियों को आधार बनाकर की गई, प्रतिभागियों के उत्साह को देखकर मैं काफी खुश थी क्योंकि हर सहमति पर वो अपने विचार तो बता ही रहे थे साथ ही हमारी बात भी पूरी तरह सुन रहे थे। प्रतिभागियों ने अपनी पहचान तलाशने की खोज शुरु कि एक फॉर्म भरके जिसमें उनसे जुड़े कुछ सवाल थे मसलन अगर उन्हें अपना नाम खुद चुनना होता तो वो क्या होता?” एक ऐसा वाक्या जिसने उन्हें बहुत हंसाया हो इत्यादि। अपनी पहचान के अलग-अलग पहलूओं को टटोलते हुए, बड़ी बारीकि से सवालों को समझते हुए वो जवाबों को लिख रहे थे, किसी से जीतने की कोशिश जल्दबाज़ी नहीं थी ऐसा लग रहा था कि बस अपने आप को सबसे बेहतरीन तरीके से प्रस्तुत करने की चाहत थी। स्कूली छात्र-छात्राओं में ऐसा कम ही दिखता है।

इसके बाद पहचान पत्र बनाने की एक्टिविटी काफी मज़ेदार रही- प्रतिभागियों ने एक्टिविटी को बखूबी समझा, अपने आप से जुड़े शब्दों को पेपर पर उतारा और अपने व्यक्तित्व को एक नई परिभाषा दी। इन पहचान पत्रों को देखकर समझ आ रहा था कि वो जीवन की कठिन परिस्थितियों से वाकिफ़ है, इसके बावजूद वो सपने देखते हैं और उन्हें पूरा रखने का हौसला रखते हैं जैसे एक
15 साल की लड़की पुलिस में भर्ती होना चाहती है, 14 साल का लड़का आर्मी ऑफिसर बनना चाहता है, कई बच्चे अपने काम से अपने माता-पिता का नाम रोशन करना चाहते हैं, इन बातों ने मेरे दिल को छू लिया क्योंकि ये उनके जीवन में स्थापित हो रहे मूल्यों को दर्शाते हैं – उन्हें एहसास है कि उनके माता-पिता किन कठिनाइयों से उनकी परवरिश कर रहे हैं, उन्हें पढ़ा रहे हैं। और यही गुण और मूल्य उनकी पहचान का अभिन्न अंग भी हैं।


किशोरावस्था में अपनी पहचान को समझना कितना अहम हो सकता है, इस बात को स्थापित करने के लिए हम दो ग्रुप में बंटे और देश के दो महान व्यक्तित्व महात्मा गांधी और रानी लक्ष्मीबाई की कहानी सुनाई – कुछ सवालों और चर्चा के जरिए जीवन के इस दौर में सही मूल्यों को सीखने और अपनी पहचान को जानने की कोशिश की। सत्र के अगले हिस्से में एक खेल के जरिए हर प्रतिभागी को अपने बारे में एक अच्छी बात पूरे ग्रुप को बतानी थी।
मैंने अक्सर देखा है कि इस प्रक्रिया में प्रतिभागी झिझकते हैं, अपने बारे में अच्छी बात कहने से कतराते हैं पर यहां बात अलग थी- क्योंकि हर एक प्रतिभागी वो मौका चाहता था जहां वो अपने बारे में एक अच्छी बात बताए, ऐसा इसलिए भी है कि इस समुदाय में इन बच्चों को वो जगह और मौका नहीं मिलता जहां वो अपने बारे में बोल पाएं इसलिए वो इस मौके को गंवाना नहीं चाहते थे।


बस्ती की सड़क के बीचो-बीच, नाले के पास, चिलचिलाती धूप में और तपती ज़मीन पर बैठकर 32 किशोर-किशोरियों के साथ वर्कशॉप करके हमें ज़मीनी स्तर पर काम करने के मायने समझ में आए। इस काम के जरिए हमने एक अहम और हमारे व्यक्तित्व से जुड़े बेहद जरुरी ढांचे को तोड़ा- हमारे लिए इन परिस्थितियों में वर्कशॉप करना काफी मुश्किल था, क्योंकि हमने जब भी वर्कशॉप फेसिलिटेट की है या किसी वर्कशॉप का हिस्सा बनें हैं तो वो काफी आरामदायक जगह होती थी – रोशनी से भरपूर हवादार कमरा जहां गद्दे या साफ चटाई बिछी हुई, सुविधा के मुताबिक सभी चीजें उपलब्ध होती, पानी और खाने की व्यवस्था और समय पर प्रतिभागियों का आगमन होता था। जब सभी चीजें सेट हो जाती तो फेसिलिटेटर अपने मन और दिमाग को एकाग्र करके उस जगह का फील लेकर वर्कशॉप को शुरू करता और आगे बढ़ाता- हमारे लिए वर्कशॉप के मायने हमेशा से यही थे पर यहां पर बहुत छोटा कमरा था जहां गोला बनाना नामुकिन था, लाइट के नाम पर सूरज की तेज रोशनी थी, चटाई की जगह पर तपती रेत और रोड़ी की ज़मीन थी।
यहां पर हमें अपने प्रिविलेजड होने का एहसास हुआ- एक तरह का विरोधाभास महसूस हुआ, समझने में कठिनाई हो रही थी पर परिस्थिति को छोड़ने के बजाय हम उस अंतरद्वंद के साथ रहे, उसे महसूस किया, उसे जिया और विशेषाधिकारों की बेड़ियां तोड़कर अपने लिए एक नए अध्याय की रचना की। फेसिलिटेशन का एक नया रुप रेखांकित किया जिसमें सुविधाओं, सहजता और विशेषाधिकारों को दरकिनार करते हुए वो किया जाए या उन परिस्थितियों में ढला जाए जो उस वक्त और जगह की मांग हो।

जेंडर और यौनिकता पाठ्यक्रम के जरिए हम किशोर-किशोरियों को वो सुरक्षित जगह देना चाहते हैं जहां वो अपनी मन की बातें कह सके, जिज्ञासा को एक्सप्रेस कर सके, सवाल पूछ सके और एक बेहतर इंसान बन सके। मैं काफी दिनों से इस सुरक्षित जगह के मायने भी खोजने की कोशिश कर रही हूं, कई सवाल हैं जो परेशान करते हैं, इस अनुभव के बाद ऐसा लगता है कि सुरक्षित जगह यानि सेफ शेयरिंग स्पेस उम्र आधारित भी है क्योंकि 10 साल तक के बच्चों को अपने माता-पिता से बातें बांटना ज्यादा सहज लगता है- मेरे साथ कुछ भी होता है, या कुछ भी चाहिए होता है तो मैं अपने मम्मी-पापा को बता देता हूं, वो मेरी सभी बातें सुनते हैं10 साल के बच्चे ने कहा। वहीं कशोरावस्था में ये जगह हम उम्र दोस्त ले लेते हैं, 15 साल की किशोरी ने कहा, मुझे अपनी बातें अपने दोस्त को बताना ज्यादा सुरक्षित लगता है क्योंकि वो मुझे इन बातों को लेकर जज नहीं करेंगे, मेरी बातों को समझेंगे, सही- गलत में मेरा साथ देंगे। कई बातें होती हैं जो मम्मी-पापा को बताई नहीं जा सकती क्योंकि वो समझते ही नहीं, मेरे बोलते ही मुझे डांटने लगते है, मुझे बोलने से रोक देते हैं।

ये वर्कशॉप कई मायनों में खास रही क्योंकि यहां केवल प्रतिभागियों ने नहीं सीखा बल्कि हमने भी कई चीजें अनुभव की और सीखीं। एकतरफ जहां प्रतिभागियों ने अपनी पहचान और उसके मायने तलाशने की शुरुआत की वहीं हमने ये जाना कि उनकी ये पहचान कहां से आती है और किस तरह ये पहचान समुदाय से प्रभावित है। 


वर्कशॉप काफी अलग और मज़ेदार रही, आसपास से गुजरते माता-पिता और बच्चे बड़े चाव से देख रहे थे क्योंकि ये चीजें यहां कभी होती नहीं। एक माता-पिता ने तो मुझसे आकर पूछा भी हमारे से क्या गलती हो गई कि आपने हमारी लड़की को वर्कशॉप में शामिल नहीं किया। बच्चे अगर अपने बारे में कुछ नई चीज सीखेंगे तभी तो आगे बढ़ेंगे। ये फीडबैक हमें आगे बढ़ते रहने के लिए जरुर प्रेरित करेगा। पहली वर्कशॉप के बाद ये तो तय है कि आने वाला सफ़र आसान नहीं होगा पर इतना पता कि ये सफ़र बेहद रोमांचक रहने वाला है।

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