Friday 16 October 2015

पत्रकार की प्रेम कहानी...

अक्सर पत्रकारों के बीच दोस्ती या प्यार की शुरूआत ऐसे ही किसी न्यूज़ चैनल की टपरी से होती है, टपरी से मेरा तात्पर्य है चाय की वो छोटी दुकान जहां सबकुछ मिलता है- चाय, मठ्ठी, सिगरेट, अलग-अलग तरह की नमकीन, चिप्स वगैरह वगैरह। खैर टपरी पर थिसिस करने का मेरा कोई विचार नहीं है, मैं तो बस आपको बताना चाह रहा था कि मेरी पहली डेट(न्यूज़ चैनल वाली) टपरी पर ही हुई। मैंने उससे पूछा, क्या लोगी तुम? ” उसने मेरी तरफ प्यार से देखा और जोर-जोरकर खिलखिला उठी। मैं झेंप गया, सोचने लगा कि इसमें हंसने वाली क्या बात है? पर उसको मुस्कुराता देख दिल में कुछ हो रहा था, दिल की धड़कने बढ़ रही थी, मन कर रहा था कि वो यूं ही हंसती रही और मैं उसे देखता रहूं। क्या ये प्यार है या बस अट्रेक्शन?, दिल और दिमाग पर वर्ल्ड वार-3 चल रही थी। 

इतने में कंधे पर हाथ रखकर उसने मुझे झकझोरा, ओह! आज सुबह शायद मैंने किसी बहुत ही लकी शख्स का चेहरा देखा होगा कि ये सब मेरे साथ हो रहा है। उसने मुझे छुआ, हां उसने मुझे छुआ...कंट्रोल बेटा, कंट्रोल! दिमाग के गधे दौड़ाना बंद कर, पहले ही दिन इतना उड़ोगे तो मुंह के बल गिरोगे !मैंने थोड़ा हिचकिचाते , थोड़ा रौब से उससे पूछा, क्या हुआ, ऐसा क्या बोला मैंने कि तुम हंसने लगी?” इसपर वो बोली, आप तो ऐसे बात कर रहे हैं कि हम किसी फाइव स्टार होटल में बैठे हैं, टपरी है भई दो चाय और दो मठ्ठी ले लीजिए। मैं कुछ बोल पाता उससे पहले वो बोली, आपको मेरा हंसना अच्छा नहीं लगा, सॉरी सर नहीं हंसूगी। मेरा दिल बैठ गया, मैंने जल्दी से डैमेज कंट्रोल करते हुए कहा, “अरे नहीं...नहीं मुझे समझ नहीं आया कि तुम हंसी क्यों, हमेशा हंसती रहो, तुम हंसती तो लगता है कि बसंत ऋतु आ गई है तो फूलों की बारिश हो रही है..

मैंने अपना सिर पीटा, हे मेरे ईष्ट ये मैंने क्या कह दिया, ये मेरे मुंह से क्या निकल गया...वो क्या सोचेगी मेरे बारे में? उसे लगेगा और लोगों की तरह मैं भी उसपर लाइन मार रहा हूं या फिर ये कि मैं ठरकी हूं? मेरे विचारों की बस पर उसकी हंसी ने ब्रेक लगा दिया, बोली थैंक गॉड आप दूसरे लोगों की तरह नहीं है, मुझे लगा कि आप नाराज़ हो गए?” चाय की चुसकी लगाते हुए हम दोनों ने ढेरों बातें की। बहुत दिनों बात ख़बरों के अलावा मैंने कोई बात की है, अलग लग रहा है- पता नहीं ये अच्छा अहसास है या बुरा? मन में अजीब से बैचेनी थी, क्योंकि मेरे दूसरे बुलेटिन का समय पास आ रहा था, मैंने चाय के पैसे दिए और हम दोनों वापस न्यूज़ रुम की तरफ चल पड़े। 



मेरे वापस लौटते ही मिस्टर कर्कश आवाज़ मुझपर बरस पड़े, बिना कुछ पूछे जाने...मैंने सफाई में कहा कि आपको बताया था कि मैं चाय पीने गया था, इसपर वो साफ मुकर गए उलटा चिल्लाते हुए
बोले, ये कोई वक्त है चाय पीने का...बाद में एक घंटे के लिए खाना खाने जाओगे, ऐसा नहीं चलेगा, कहां है तुम्हारा ध्यान?” जो मन प्यार के समुद्र में थोड़ी देर पहले गोते खा रहा था, आसमान की बुलंदियों पर नाच रहा था वो सीधे जमीन पर आ गया, लग रहा था कि ये महाशय उसे अपने बेरहम बदबूदार (सच बोल रहा हूं) पैरों के नीचे कुचल रहे थे। 

अच्छा है ये पुरुष है, अगर महिला होते और गलती से सास होते तो बहू तो पहले ही दिन सुसाइड कर लेती। हे राम! कब शुक्रवार और शनिवार आएगा( इन दोनों दिनों को मेरे शिफ्ट इंचार्ज की छुट्टी होती है) तब मुझे चैन की सांस आएगी। खैर भलाई इसी में है कि ये सारे ताने मैं एक कान से सुनू और दूसरे कान से निकाल दूं। एक तरफ उनके ताने की बौझार हो रही थी दूसरी तरफ मेरी उंगलियां एक बार फिर कीबोर्ड पर तेजी से चल रही थी...भाई बुलेटिन सबसे अहम है, इज्जत गई तेल लेने।

Tuesday 13 October 2015

छोटा आदित्य...

आज घर का आंगन एक बार फिर सूना हो गया, जहां पर उस मासूम के कदमों की चहलकदमी की आवाज़ें होती थी फिलहाल वहां सन्नाटा पसरा है, लेकिन मेरा मन इस बात को मानने को तैयार ही नहीं हो रहा कि वो चला गया, मेरी नज़रे बदहवास होकर उसे यहां वहां ढूंढ रही थी। सुबह शाम की दौड़ भाग में मानो कहीं बचपन मेरे वजूद से बिछड़ गया था, परिवार तो है लेकिन वो प्यार वो अपनापन महसूस करने के लिए वक्त ही नहीं बचा था। सुबह जल्दी उठो, भागम-भाग में तैयार हो, दफ्तर में कामकाज, फिर देर शाम लौटो, खाना पीना होगा, परिवारवालों से रसमी गुफ्तगू के बाद दिन भर की थकान का समाधान के लिए बिस्तर पर नींद के आगोश में समा जाना ये ही थी मेरी दिनचर्या। कभी कभार सैर सपाटा हो जाता था पर एक पूरा परिवार क्या होता है शायद ज़हन से निकल गया था।

उस दिन सुबह-सुबह मां ने मुझे कहा कि कोई रिश्तेदार आ रहे हैं, उन्हें रेलवे स्टेशन से घर लाना है। मैंने खींज कर कहा, तो मैं क्या करूं, मैं क्या कोई कुली हूं तो सामान उठाती रहूं, जिसे आना है वो खुद ही आ जाएंगे ऐसे दो टूक जवाब देकर मैं फिर अपना काम करने लगी। लेकिन वो मेरी मां हैं, कहां मानने वाली थी, उन्होंने साफ साफ शब्दों से हिदायत दी कि रिश्तेदारों को लाना की ज़िम्मेदारी मेरी ही है जैसे खुश होकर लाओ, या गुस्से में हैं। अब मां का फ़रमान था टालने की हिम्मत थी नहीं इसलिए खिन्न मन से मैं अपना काम खत्म करके निजामुद्दीन रेलवे स्टेशन पहुंची। ट्रेन से मेरी भाभी और ढाई साल का आदित्य उतरा, मैंने भाभी से पूछा कि आप कैसे घर चलोगी? ऑटो से या फिर मेट्रो से? इससे पहले वो कुछ कहती, आदित्य अपनी तोतली आवाज़ में बोला, ऑटो से चलेंगे। मैं खिलखिलाकर दी, कितना तेज़ है ये बच्चा ! मैंने उसे गोद में उठाया और मुस्कुराकर कहा, हां बिलकुल हम ऑटो में ही जाएंगे।"

फिर जो उसने बोलना शुरू किया तो रुकने का नाम ही नहीं लिया। रेलवे स्टेशन से घर तक के रास्ते में न जाने कितने बार उसने आते जाते ऑटो की तरफ इशारा करके बताया कि वो ऑटो हैं, कार, इमारतें और न जाने क्या क्या ? घर पहुंचते ही पहले उसने मोना को पुकारा( बता दें कि मोना मेरी बहन हैं जिससे आदित्य को खासा लगाव है, पहले भी जब वो घर आया था तो मोना के साथ ही हर समय रहा था) महज ढाई साल के आदित्य को अपने हर दादा-दादी, मां-पापा, बुआ, चाचा और खानदान के न जाने कितने लोगों के नाम याद है। मेरे पापा को तो वो ‘’कार वाले बाबा कहता है, ऐसा इसलिए क्योंकि पापा से उसे डरता तो बहुत लगता है पर उसे कार से आना जाना बहुत पसंद है। जब बारी आई खाना खाने की तो छोटे मियां की फरमाइशें भी उसी की तरह है- उसे पूड़ियां, पराठे और पनीर खासा पसंद है। मेरी माताजी सुबह से ही उसकी फरमाइश पूरी करने में जुटी हुई थी, जैसे ही छोटा आदित्य आया, मम्मी ने गरमा-गरमा पूड़ियां और पनीर उसके सामने रख दी। खैर थोड़ा सा खाकर आदित्य ने घर में खूब धमाल चौकड़ी मचाई। 

पहली बार एहसास हुआ कि कैसे एक अनजाना सा रिश्ता खुशी देता है, बिना किसी उम्मीद से निभाया जाने वाले बंधन में कितना खास होता है! अगले ही दिन मेरी ताई, दूसरे भाई- भाभी आए। जिस घर में हमेशा से शांति रहती थी, ज्यादातर टीवी पर गाने या सीरियल की आवाज़ आती थी, उस घर में आज कोलाहल मचा हुआ था, पर ये आवाज़े मुझे तंग नहीं कर रहती थी और नाही मैं परेशान हो रही थी, बल्कि उनके साथ मिलकर न जाने कौन सी बातों में लगी हुई थी। पहली बार समझ में आया कि संयुक्त परिवार का मतलब क्या होता है ?

माता-पिता, भाई-बहन के आगे भी कई रिश्ते होते है जो हमारी ज़िंदगी के अभिन्न अंग होते हैं, लेकिन कब ये ज़िंदगी भागती दौड़ती लाइफ बन जाती है पता ही नहीं चलता। न जाने कितने साल हो गए गांव गए हुए, अपने उस परिवार से मिले हुए, खेतों में घूमे हुए, घर के चूल्हे पर रोटी सेंके हुए, गांव की बड़ी बूढ़ी महिलाओं के साथ बात किए हुए। उफ वो बचपन की यादें, दादा-दादी का लाड़ प्यार, घर का आंगन, नीम पर पड़ा हुए झूला, पम्प पर नहाना, छोटी छोटी पंचायतें लगाना, कुएं में गलती से कुत्ते को फेंकना, अपनी शरारतों से पूरे गांव भर को परेशान कर देना। इस छोटे आदित्य ने बसंत ऋतु की तरह मेरे पतझढ़ हो गए बचपन में फिर बहार ला दी।  कांक्रीट का मकान बहुत दिनों बाद घर लग रहा था। सच तो है बचपन जीवन का सबसे सुखद अनुभव होता है, ऐसी सूफर्ति मन में भर देता है कि फिर जीने का मन करता है।




खैर आदित्य के जाने का समय आ गया था, उसे गांव में अपने दादी-दादा के पास जाना था, मन तो कर रहा था कि रोक लू, पर उसका जाना भी जरुरी था। उसके जाने का बाद मन भर आया था, आंखों से ज़ज्बात फूट-फूटकर बाहर निकल रहे थे, ऐसा लग रहा था कि मानो कोई बहुत प्यारी सी चीज मुझसे अलग हो गई हो! घर खाली था लेकिन मन में उसकी यादें ताजा थी...

Friday 9 October 2015

पत्रकार का प्यार-प्यार होता है !


उस मीठी आवाज़ को सुनकर दिल बाग-बाग होने ही वाला था कि मेरी पीठ पर जो दमदार हाथ पड़ा उसने मेरे खाबो-ख्याल को तार तार कर दिया। दरअसल वो मेरे फेवरेट शिफ्ट इंचार्ज है (व्यंग्य तो आप समझ ही गए होंगे) जिन्होंने मेरी पीठ थपथपाकर कर सपनों की ट्रेन को स्टेशन पर पहुंचने से पहले ही रोक दिया। मैंने अपने मन में सोचाहे भगवान ! अब सोचने के लिए भी शिफ्ट इंचार्ज से परमिशन लेनी पड़ेगी, अगर प्यार करना हो तो! नहीं...नहीं...ऐसा ख़तरा तो मैंने अगले जन्म में भी नहीं उठाना चाहूंगा ?इस डरवाने एनकाउंटर के बाद मैं एक बार फिर ख़बरों को नया रुप देने में जुट गया।एक बजने वाला था पर मुख्य ख़बरों में अपडेट अभी तक नहीं मिला था। अगर नई अपडेटेट ख़बरें नहीं दिखाई तो बॉस तो डांटेगा ही, साथ ही ये जनता के साथ धोखा भी होगा जो मैं तो बिलकुल बर्दाश्त नहीं कर सकता। 

हमारा असाइनमेंट डेस्क कभी कभार नेताओं की तरह व्यवहार करता है, चुनावों से पहले जैसे वादे नेता करते है वैसे ही बुलेटिन से पहले असाइनमेंट कहता है कि बस थोड़ी देर और, अभी अपडेट कर देंगे! मेरी धड़कन ऊपर नीचे हो रही थी कि अचानक अपने माथे से बालों की लट हटाते हुए वो बोली, “सर आप टेंशन मत लीजिए, मैंने रिपोर्टर को फोन किया है वो अभी बता देगा कि मुख्यमंत्री सभास्थल पर पहुंचे कि नहीं, हो सकता है मुख्यमंत्री का लाइव भी मिल जाए।

ऐसा पहली बार हुआ था कि कोई असानमेंट डेस्क से इतने प्यार से बात कर रहा हो, नहीं तो कुछ भी पूछने पर हमेशा चीखते हुए ही जबाव मिलता था। नहीं नहीं... ये सब सोचने का समय नहीं था मेरे पासखैर बुलेटिन शुरू हो गया लेकिन मुख्यमंत्री का कुछ अता-पता नहीं था, बुलेटिन की ड्यूरेशन छोटी न हो जिसके लिए मैं जुगाड़ तलाशने लगा। मन में रह-रहकर विचार आ रहा था कि क्यों एक इंटर्न की बातें सुनकर रुक गया, कुछ भी गड़बड़ होगी तो मुझे डांट पड़ेगी उसका क्या जाएगाउसे तो कोई कुछ नहीं बोलेगा, वैसे भी वो बहुत सुंदर है ! इतने में ही उसने मुझे फिर पुकारा, बोली सर मुख्यमंत्री लाइव मिल रहे हैं, क्या काटेंगे? यहां मैं आपको बताना चाहूंगा कि काटने का मतलब वीडियो या फीड को एडिट करना होता है, अगर लाइव काटने को कहा जाए, तो उसे स्क्रिन पर सीधे दिखाना होता है।





आज सच में उसने मेरी जान बचा ली, मेरे बुलेटिन में तो चार चांद लग गए। कुछ देर पहले जो हल्की सी नाराज़गी जागी थी वो एकदम रफ्फू-चक्कर हो गई, मन गिल्ट से भर रहा था कि मैंने उसकी काबिलयत को उसके इंटर्न होने से कैसे परख लिया? अक्सर मैं ऐसा ही करता हूं बिना सोचे समझे किसी के बारे में भी राय बना लेता हूं। इससे पहले दिमाग और दिल फिर लड़ने लगते, मैं उसके पास गया और थैंक्यू कहा। मन सच में खुश था क्योंकि जितना दीवाना मैं ख़बरों का हूं वो दीवानगी कहीं न कहीं उसमें भी थी। मैंने उससे चाय के लिए पूछा तो उसने मुस्कुराते हुए हामी भर दी। 

Monday 5 October 2015

Non violent communication and sublimewe :-)

“What is alive for you at this present moment?” This is a question that I have been hearing for long time; however I couldn’t really understand its meaning or the purpose? So when I was asked the same question, I was confused, there was feeling of grumbling in my stomach and weirdness. Hence I was compelled to ask this question “What does this ‘alive’ means? And why should I bother about it so much” The answer that I got surprised me as this is something I have never bothered to think, observe or even pay attention to! “ Alive at this moment” to my current understanding refers to what feelings I have at this present moment or what is that I am going through inside right now (Important: these feelings are free from our future or past thought process). This was the time when I completely let myself be the part of the circle.

That reminds me what is a circle? Is this just a convenient setting for a workshop? The coolest answer to this is that sitting in a circle negates hierarchy, all are considered equal. One of the insight that I got was circle is something where people can pour their heart out and everything is dumped and lost in the centre of the circle. I got this beautiful opportunity to attend OuRS (Open unlearning Restorative spaces with an intention of exploring non violent communication and also ‘sublimewe’). I knew few things about Non violent communication but sublimewe was something I had never heard! However I got the feel of the same in the very starting of the workshop. 

So the workshop started with the facilitator taking red colored thing that was made of wollen in her hand and sharing how she was feeling followed by other facilitator doing the same. I was confused as to what was actually happening and why we are not instructed about the same! This was something that was bothering the other participants too as why there is no formal check-in or an introduction or agreements? These questions were then put to our thoughts and interestingly answers came from us. I got an understanding that we are so structured or integrated in a particular system that its so difficult for us to think beyond that! It was such an abrupt yet interesting start to the workshop.

One of the participant shared that the things that were kept in the centre of the circle and whole atmosphere spooked her! Later we got to know that the 3 things - fluffy- the red colored wollen thing, a bowl with a wooden thing and a cylindrical thing with candle kept in the centre had their specific significance. If any of the participants wants to share something, they take “fluffy” in their hand and speak; the “tingly thing” was to be used when one resonates with the participant sharing something and “black somewhat cylindrical thing” was to be used for making request or saying anything that is urgent. The ongoing discussion proceeded ahead with the group energy and what was alive for the participants! 

This was followed by an invitation where participants were asked to share their intention of coming and how to take that further. I have always struggled to say ‘No’ to the people close to me, I end up doing things that people like and not me. I also shared that my friends don’t really understand what my needs are or when I say I want space for myself that means I need space. There are people in my life who in literal terms stalk me, follow me, call me! I was structured in a way that I never wanted to hurt people because I didn’t want to do a particular thing. This made me emotional; I really didn’t know how to put it across. So I shared my intention to have my space without hurting others with my words, other participants resonated with the same. In between I was really surprised and joyful that there was no particular structure that was followed in the workshop, no tap on the time and also the activity/ discussion was followed with our energy (sublimewe! Yeye).

This was followed by discussion on what is an observation and perception? To understand we did an activity where in the participants were divided into groups of 2; one had to close eyes and observe the object given by the other participant. As I am so used to follow instructions, I was totally focused on describing the object, however one part of mind was continuously trying to interpret what that object was! After this the facilitator recited one of the poem, we with our eyes closed were to focus on how we felt. I was spooked and felt that it was actually happening to me; the shriek that I heard in between scared the hell out of me. From this activity, the understanding of the difference between feelings and thoughts was established.

Later, the cards with a particular feeling written on them were spread in the centre, each participant had to pick up two cards, describing how they were feeling in the present moment. Interestingly, when one share their feeling, each of the participants was invited to close their eyes and see how their body responds to the feeling shared. This was strange as I never really gave a thought on how feelings and bodily reactions were inter-related. I felt stressed and joyful at the same time and interestingly I could understand how my body was reacting to the same.

The third and one of the major components of NVC is needs. Judgments lead to arguments and conflicts, if one is able to see the need behind the violent or judgmental behavior and could empathize with the person, conflicts can be easily resolved. This was very beautiful described by picture of plant wherein the major source of what we do or what we don’t do totally depends on roots that is needs! This was followed by a grueling discussion on why terrorist or rapist commits heinous crime or what is their need behind that? In between a participant shared that she didn’t feel a need to talk about a criminal’s need.





I had been part of number of workshops, co-created many safe spaces on gender and gender based violence, but this workshop was one of its kinds. For the first time, I could see co-creation in true self, flowing ahead with intentions and what is alive at that moment in each of us. Experiment, experiential and an amazing blend of Non violent communication and sublimewe!

Friday 2 October 2015

पत्रकार के पास भी दिल होता है...


ख़बरों से प्यार और भावनाओं का रिश्ता ऐसा है कि सोते जागते, खाते-पीते ( पानी पीने की बात हो रही है यहां पर!) दोस्त या परिवार से बात करते समय भी सिर्फ ख़बरों की चर्चा होती है। लोगों के मुताबिक मेरे पास दिल नहीं है, दिल की जगह पर एक टेलीविज़न है जहां सिर्फ ख़बरें ही डिस्पेल होती है। लेकिन इसमें क्या गलत है लोगों की महबूबा लड़की होती है मेरी महबूबा हर रोज़ घटने वाली घटनाएं हैं। ऐसा मैं तब तक सोचता था जब तक उसे नहीं देखा था। मेरे ख़बरों से भरे रेगिस्तान में उसकी एंट्री बिलकुल मॉनसून की पहली बरसात की तरह था। नो ओफेन्स मौसम विभाग के अनुमान से बिलकुल विपरित था उसका आना (हां भाई! रेगिस्तान में भी बारिश हो सकती है)

हालांकि उसकी एंट्री रोमंटिक फिल्म की तरह नहीं थी, उसे देखकर हवाएं नहीं चली, नाही उसका दुपट्टा हवा में उड़ रहा था, नाही कोई वायलिन बजा...मैं हैरान तो तब हुआ जब कोई गाना नहीं बजा। सोचा शायद कोई इंट्रेस्टिंग ख़बर ही आ जाती, मन को सुकून आ जाता कि ये प्यार की दस्तक है। इस ताने-बाने मैं अचानक ख़बर आई की प्रदेश में विपक्ष के बढ़ते हंगामे को लेकर मुख्यमंत्री को दिल्ली हाईकमान ने तलब किया है। ओफ, प्यार गया तेल लेने अभी मुख्यमंत्री ज्यादा अहम है। मुद्दा सभंल पाता इससे पहले बड़ा रेल हादसा हो गया। ये प्यार तो गले का फांस बन गया, इसकी दस्तक इतनी खतरनाक है तो आगे बढ़ना कैसा होगा, सोचकर भी मन कांप गया। उस हसीना को मैंने एक खुबसूरत सपने की तरह भुलाने की ठान ली। ख़बरों की दौड़ धूप में मैंने देखा कि किस शिद्दत के साथ वो अपना काम निभा रही थी। ख़बर पर पल पल अपडेट देना हो, किसी एक्सपर्ट से ज्यादा जानकारी के लिए फोन करवाना हो, या घटना को ख़बर का एंगल देना हो, वो हर काम बखूबी निभा रही थी। मैं हैरान था ये देखकर कि एक इंटर्न इतना अच्छा काम कैसे कर सकती है? क्या ज़ज्बा है वाह! उसने अपनी इंटेलिजेंस ने मुझे कायल कर दिया था।


इससे पहले मेरा ख़बरों भरा दिल उसके प्यार के समुद्र में गोता खाने लगता, सपनों का ताजमहल बन पाता कि न्यूज़ रुम की फेमस कर्कश आवाज़ ने मुझे हिला दिया। खैर अपने बची हुई भावनाओं को समेटते हुए भारी कदमों के साथ मैं अपनी सीट की तरफ बढ़ा। पर मेरी आंखे अभी भी उसी पर टिकी हुई थी, दिमाग में एक ख्याल ये नहीं आया कि उसने देख लिया तो क्या होगा। 



एक बात तो थी कि वो खास है, मेरे लिए। क्या इसे प्यार ही कहते है या मन का कोई अनजाना खलल, हे भगवान दिल और दिमाग की बैटिंग के बीच मैं बावरा सा हो गया था। डेस्क पर पहुंच गया, खड़े होकर कुछ सोच ही रहा था कि एक अजनबी आवाज़ ने मेरा नाम पुकारा। आवाज़ ऐसी जैसे कानों में मिसरी घुल गई हो, मेरा नाम इतना अच्छा शायद ही कभी लगा था मुझे! आगे भी जारी रहेगा पत्रकार और उसके दिल की दास्तां...